शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

अनुभूतियाँ 87

क़िस्त 87 

345

तुमने ही खो दिया भरोसा

वरना मेरी क्या  ग़लती थी

चाँद उछल कर छू लेने की

शायद तुम को ही जल्दी थी 


346

जा ही रही हो तो जाओ फिर

आँसू का क्या ,कब रुक पाते

कभी कभी भूले भटके भी

मिलते रहना आते-जाते 


347

मन के अन्दर अगर ख़ुशी हो

हर मौसम है हरा-भरा सा

वरना पतझड़ की आहट से 

पत्ता-पत्ता डरा-डरा सा


348

कितना था विश्वास तुम्हारा

माँगा था कुछ हम से हक़ से

एक हमीं थे ,’हाँ’ न कर सके

तुमको उस दिन मैने झट से 


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