क़िस्त 87
345
तुमने ही खो दिया भरोसा
वरना मेरी क्या ग़लती थी
चाँद उछल कर छू लेने की
शायद तुम को ही जल्दी थी
346
जा ही रही हो तो जाओ फिर
आँसू का क्या ,कब रुक पाते
कभी कभी भूले भटके भी
मिलते रहना आते-जाते
347
मन के अन्दर अगर ख़ुशी हो
हर मौसम है हरा-भरा सा
वरना पतझड़ की आहट से
पत्ता-पत्ता डरा-डरा सा
348
कितना था विश्वास तुम्हारा
माँगा था कुछ हम से हक़ से
एक हमीं थे ,’हाँ’ न कर सके
तुमको उस दिन मैने झट से
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