क़िस्त 88
349
सच की करें हिमायत खुल कर
कहाँ गए वो करने वाले
कहीं नहीं अब दिखते हैं वो
उलफ़त में थे मरने वाले
350
धीरे धीरे छोड़ गए सब
एक तुम्हारी आस बची थी
तुम भी अब जाने को कहती
जो कि आख़िरी साँस बची थी
351
जाते जाते ख़त ले जाना
लिखा तुम्हे था भेज न पाया
सोचा था अब कुछ न लिखूँगा
लेकिन दर्द सहेज न पाया
352
एक ’कल्पना’ एक ’प्रेरणा’
कौन बसी थी ?ज्ञात नहीं है
जीवन भर की "अनुभूति" थी
पल-दो पल की बात नहीं है
-आनन्द,पाठक-
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