क़िस्त 89
353
धीरे धीरे छोड़ गए सब
एक तुम्ही से आस लगी है
तुम भी अब जाने को कहती
एक आख़िरी साँस बची है
354
प्रश्न तुम्हारा वहीं खड़ा है
मैं ही उत्तर ढूँढ न पाया
ग्यान-ध्यान क्या दर्शन क्या है
मैं ही मूढ़ समझ ना पाया
355
मेरी नहीं तो अपने दिल की
कभी कभी तो बातें सुन लो
सत्य-झूठ की राहें सम्मुख
जो चाहे तुम राहें चुन लो
356
सत्ता उसकॊ नूर उसी का
जड़-चेतन में वही समाया
यह तो अपनी अपनी क़िस्मत
किसने खोया किसने पाया
-आनन्द.पाठक-
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