क़िस्त 91
361
सन्दल सा है बदन तुम्हारा
छू कर आती हुईं हवाएँ
एक नशा सा भर देती हैं
और न हम फिर होश में आएँ
362
राह न रोकूँ ,हट जाऊँ मैं
अगर यही याचना तुम्हारी
और दुआ मैं क्या कर सकता
पूरी हो कामना तुम्हारी
363
एक परीक्षा यह भी बाक़ी
गली तुम्हारी ,मुझे गुज़रना
पार हुए तो फिर जीना है
वरना मरने से क्या डरना
364
आ न सकूँगा द्वार तुम्हारे
यह न समझना प्यार नहीं है
तन मेरा हो भले कहीं भी
मन मेरा पर टिका वहीं है
-आनन्द.पाठक-
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