क़िस्त 94
373
जबतक है चेतना तुम्हारी
तबतक इसको थाती समझो
साँस है जबतक तुम भी तबतक
वरना फिर तो माटी समझो
374
जबतक सूरज चमक रहा है
जो करना है कर जाना है
शाम ढलेगी तो फिर सबको
अपने अपने घर जाना है
375
"अनुभूति" न बस ’आनन’ की है
मेरी-तेरी हम सबकी है
फ़र्क यही कि मैने कह दी
और सभी ने बस सह ली है
376
रात गई सो बात गई अब
उसको फिर से क्या दुहराना
नई सुबह की नई किरन को
जो बीती है नहीं बताना
-आनन्द.पाठक-
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