क़िस्त 98
389
जीवन भर चलता रहता है
एक तमाशा मेरे आगे
आ जाती है नींद किसी को
कोई कहीं सुबह में जागे
390
क़तरे से है बना समन्दर
या कि समन्दर में भी क़तरा
एक दिवस जब मिल जाना है
फिर क्यों है जिस्म का पहरा
391
आँख मिचौली सुख-दु:ख की है
हार-जीत का बस खेला है
जीवन क्या है ? आना-जाना
चार दिनों का बस मेला है
392
ग़म के पल में ही पलते हैं
आने वाले कल के सपने
साथ पता भी चल जाता
कौन पराया ,कौन हैं अपने
-आनन्द.पाठक-
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