किस्त 99
393
इतना तो मालूम नहीं है
खुशियाँ कब आतीं ,कब जातीं
लेकिन मेरी तनहाई में
यादें तेरी साथ निभातीं
394
कैसे हाथ बढ़ाते तुम तक
हाथ हमारे कटे हुए थे
वक़्त के हाथों कौन बचा है
हम अन्दर से बँटे हुए थे
395
एक द्वन्द चलता रहता है
आजीवन इस मन के अन्दर
पाप-पुण्य क्या, ग़लत-सही क्या
मन उलझा रहता जीवन भर
396
किसको ढूँढ रहा हूँ मैं ,क्यों ?
जिसको ढूँढ न पाए ग्यानी
लेकिन सब की प्यास एक है
सदियों की ,जानी पहचानी
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें