शनिवार, 26 अप्रैल 2025

ग़ज़ल 438

  ग़ज़ल 438 [ 12-]

1222---1222---1222---122


हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है

हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।


गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो

मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।


सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से

अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।


मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में

तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।


जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो

यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।


सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी 

मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।


जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’

तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।


-आनन्द पाठक-

कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है


ग़ज़ल 437

  ग़ज़ल 437 [11-G]

212---212---212---212


यार मेरा कहीं  बेवफ़ा तो नहीं

 ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं


कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,

हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं


बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा

ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं


तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई

मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं


रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी 

राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं


लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही

सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।


वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ

जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें

यहाँ सुनें

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ग़ज़ल 436

  ग़ज़ल् 436 [10-]

212---212---212---212--


उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।


तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते

राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?


दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा

कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की


लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ

क्या बिना आग का यह धुआँ है सही


क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे

रोटियाँ ना सिकीं, व्यर्थ है ’लीडरी’


जिसको होता किसी पर भरोसा नहीं

खुद के साए से डरता रहा है वही ।


हम सफर जब नहीं ,हम सुखन भी नहीं

फिर ये 'आनन' है किस काम की जिंदगी

-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 435

  ग़ज़ल 435 [09-G]

2122---1212---22


लोग क्या क्या नहीं कहा करते ,

हम भी सुन कर केअनसुना करते ।


उनके दिल को सुकून मिलता है

जख़्म वो जब मेरे हरा करते ।


ताज झुकता है, तख़्त झुकता है

इश्क़ वाले कहाँ झुका करते ।


 कर्ज है ज़िंदगी का जो  हम पर

उम्र भर हम उसे अदा करते।


सानिहा दफ्न हो चुका कब का

कब्र क्यों खोद कर नया करते ?


जिनकी गैरत , जमीर मर जाता

चंद टुकड़ो पे वो  पला करते ।


ग़ैर से क्या करें गिला ’आनन’

अब तो अपने भी हैं दग़ा करते


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 434

  ग़ज़ल 434 [ 08-G]

1222---1222---1222---1222


कहाँ आसान होता है  किसी को यूँ भुला पाना

वो गुज़रे पल, हसीं मंज़र, वो कस्मे याद आ जाना


पहुँच जाता तुम्हारे दर, झुका देता मैं अपना सर

अगर मिलता न मुझको रास्ते में कोई मयख़ाना


नहीं मालूम क्या तुमको मेरे इस्याँ गुनह क्या हैं

अमलनामा में सब कुछ है मुझे क्या और फ़रमाना


शजर बूढ़ा खड़ा हरदम यही बस सोचता रहता

परिंदे तो गए उड़ कर मगर मुझको कहाँ जाना ।


अजनबी सा लगे परदेश, गर मन भी न लगता हो

वही डाली, वही है घर, वही आँगन, चले आना ।


कमी कुछ तो रही होगी हमारी बुतपरस्ती में

तुम्हारी बेनियाजी को कहाँ मैने बुरा माना ।


मुहब्बत पाक होती है तिजारत तो नहीं होती

हमारी बात पर ’आनन’ कभी तुम ग़ौर फ़रमाना 


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 433

  ग़ज़ल 433 [ 07-G]

1222---1222---1222----122


रवायत बोझ हो जाए उसे कब तक उठाना

अरे क्या सोचना इतना-’कहेगा क्या ज़माना !’


इशारों में कही बातें इशारों में ही अच्छी

ज़ुबां से क्या बयां करना किसी को क्या बताना


किसी के पैर से कब तक चलोगे तुम कहाँ तक

छुपी ताक़त है अपनी क्यों न उसको आजमाना


हमेशा इश्क. को तुम कोसते, नाक़िस बताते

तुम्हारी सोच क्यों होती नहीं है आरिफ़ाना ।


शराफ़त से अगर बोलो तो कोई सुनता कहाँ है

शराफ़त छोड़ कर बोलो सुने सारा ज़माना ।


तकज़ा है यही इन्सानियत का, शख़्सियत का

ज़ुबां दी है किसी को तो लब-ए-दम तक निभाना।


मुहब्बत भी इबादत से नहीं कमतर है ’आनन’

अगर उसमे न धोखा हो, न हो सजदा बहाना ।


-आनन्द पाठक-


ग़ज़ल 432

  ग़ज़ल 432 [06-G)सच तो कुछ और था

2212---1212---2212---12

सच तो कुछ और था मगर तुमने घुमा दिया

चेहरे के रंग ने मुझे  सब कुछ बता दिया ।


देता भी क्या जवाब मैं तुझको, ऎ ज़िंदगी !

तेरे सवाल ने मुझे अब तो थका दिया ।


वैसे तुम्हारे शौक़ में शामिल तो ये न था

देखा कहीं जो बुतकदा तो सर झुका दिया


इतना भी तो सरल न था दर्या का रास्ता

पत्थर को काट काट के रस्ता बना दिया


क्या क्या न हादिसे हुए थे राह-ए-इश्क़ में

करता भी याद कर के क्या सबको भुला दिया


सुनने को दास्तान था तेरी जुबान से

तूने कहाँ से ग़ैर का किस्सा सुना दिया


कुछ शर्त ज़िंदगी की थी हर बार सामने

हर बार शर्त रो के या गा कर निभा दिया ।


क्यों पूछती हैं बिजलियाँ घर का मेरे, पता

’आनन’ का यह मकान है, किसने बता दिया?


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

बुतकदा =मंदिर


ग़ज़ल 431

 

ग़ज़ल 431[05-G]

2212---1212--2212---12


दौलत की भूख ने तुम्हे अंधा बना दिया

इस दौड़ में सुकून भी तुमने लुटा दिया


दो-चार बस फ़ुज़ूल इनामात क्या मिले

दस्तार को भी शौक़ से तुमने  गिरा दिया


इल्म.ओ.अदब की रोशनी चुभने लगी उसे

जलता हुआ चिराग़ भी उस ने बुझा दिया


लहजे में अब है तल्ख़ियाँ, लज़्ज़त नहीं रही

आदाब.ओ.तर्बियत मियाँ! तुमने भुला दिया


सत्ता ने चन्द आप को अलक़ाब क्या दिए

अपनी क़लम को आप ने गूँगा बना दिया


कुछ लोग थे कि राह में काँटे बिछा गए

कुछ लोग हैं कि राह से पत्थर हटा दिया


’आनन’ अजीब हाल है लोगों को क्या कहें

था शे’र और का, मगर अपना बता दिया।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को श्री विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] जी ने मेरी एक ग़ज़ल को बड़े ही दिलकश अंदाज़ में अपना स्वर दिया है आप भी सुनें। लिंक पर क्लिक करें और आनन्द उठाएँ


https://www.facebook.com/watch/?v=503360932825231&rdid=yXGK9YMOhcYihyGL


ग़ज़ल 430

  ग़ज़ल 430 [04-G)


2212---2212

यह झूठ् की दुनिया ,मियाँ !

सच है यहाँ बे आशियाँ ।


क्यों दो दिलों के बीच की

घटती नहीं है दूरियाँ ।


बस ख़्वाब ही मिलते इधर

मिलती नहीं हैं रोटियाँ ।


इस ज़िंदगी के सामने

क्या क्या नहीं दुशवारियाँ ।


हर रोज़ अब उठने लगीं

दीवार दिल के दरमियाँ ।


तुम चंद सिक्कों के लिए

क्यों बेचते आज़ादियाँ ।


किसको पड़ी देखें कभी

’आनन’ तुम्हारी खूबियाँ ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 429

  ग़ज़ल 429 [03 G]

2122---2122---2122-

फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन

बह्र-ए-रमल मुसद्दस सालिम

-----  ---   --- 

ज़िंदगी इक रंज़-ओ-ग़म का सिलसि्ला है्

यह किसी के चाहने से कब रुका है ?


वक़्त अपना वक़्त लेता है यक़ीनन

वक़्त आने पर सुनाता फ़ैसला है ।


कौन सा पल हो किसी का आख़िरी पल

हर बशर ग़ाफ़िल यहाँ , किसको पता है ।


कारवाँ का अब तो मालिक बस ख़ुदा ही

राहबर जब रहजनों से जा मिला है ।


रोशनी का नाम देकर् हर गली ,वो

अंध भक्तों को अँधेरा बेचता है ।


आप की अपनी सियासत, आप जाने

क्या हक़ीक़त है, ज़माना जानता है ।


वह अना की क़ैद से बाहर न आया

 इसलिए ख़ुद से अभी नाआशना है 


वक़्त हो तो सोचना फ़ुरसत में ’आनन’

मजहबी इन नफ़रतों से क्या मिला है ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 428

  ग़ज़ल 428 [02G]

221---2122-// 221-2122

मफ़ऊलु--्फ़ाइलातुन// मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन

बह्र-ए-मुज़ारे’ अख़रब

--   ---  ---

 वह पीठ अपनी ख़ुद ही बस थपथपा रहा है

 लिख कर क़सीदा अपना, ख़ुद गुनगुना रहा है।


कर के जुगाड़ तिकड़म वह चढ़ गया कहाँ तक,

कितना हुनर है उसमे सबको बता रहा है ।


जिस बात को ज़माना सौ बार कह चुका है ,

क्या बात है नई जो, मुझको सुना रहा है ।


वैसे ज़मीर उसका तो मर चुका है कब का ,

उसको भी यह पता है फिर भी जगा रहा है।


वह झूठ ओढ़ता है, वह झूठ ही बिछाता ,

कट्टर इमान वाला, तगमा दिखा रहा है ।


आवाज़ दे रहा है ,चेहरा बदल बदल कर ,

अब कौन सुन रहा है, किसको बुला रहा है ।


वादे तमाम वादे कर के नहीं निभाना ,

उम्मीद क्यों तू ’आनन’ उससे लगा रहा है ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 427

  ग़ज़ल  427 [01G]

1222---1222---1222---1222

मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम

--- ---- --- 

नशा दौलत का है उसको, अभी ना होश आएगा

खुलेगी आँख तब उसकी, वो जब सब कुछ गँवाएगा।


बहुत से लोग ऐसे हैं,  ख़ुदा ख़ुद को समझते हैं

सही जब वक़्त आएगा, समय सब को सिखाएगा।


बख़ूबी जानता है वह कि उसकी हैसियत क्या है

बड़ा खुद को बताने में  तुम्हें कमतर बताएगा ।


वो साज़िश ही रचा करता, हवाओं से है याराना

अगर मौक़ा मिला उसको, चिराग़ों को बुझाएगा


किताबों में लिखीं बाते, सुनाता हक़ परस्ती की

अमल में अब तलक तो वह, न लाया है, न लाएगा


हवा में भाँजता रहता है तलवारें  दिखाने को

जहां कुर्सी दिखी उसको, चरण में लोट जाएगा ।


शराफत की भली बातें, कहाँ सुनता कोई "आनन"

सभी अपनी अना  में है, किसे तू क्या सुनाएगा ।


-आनन्द.पाठक-






ग़ज़ल 426

  

ग़ज़ल  426[75 फ़]

21--121--121--122  =16


झूठे ख़्वाब  दिखाते क्यों हो

सच को तुम झुठलाते क्यों हो


कुर्सी क्या है आनी-जानी

तुम दस्तार गिराते क्यों हो


तर्क नहीं जब पास तुम्हारे

इतना फिर चिल्लाते क्यों हो।


गुलशन तो हम सबका है फिर

तुम दीवार उठाते क्यों हो ।


बाँध कफ़न हर बार निकलते

पीठ दिखा कर आते क्यों हो ।


जब जब लाज़िम था टकराना

हाथ खड़े कर जाते क्यों हो ।


पाक अगर है दिल तो ’आनन’

दरपन से घबराते क्यों हो ।


-आनन्द.पाठक - 





ग़ज़ल 425

  ग़ज़ल  425[74 फ़}


1222---1222---1222---1222


कोई आता है दुनिया में , कोई दुनिया से जाता है,

नवाज़िश है करम उसका, हमे क्या क्या दिखाता है


नही जो पाक सीरत हो, भरा हिर्स-ओ-हसद से दिल

इबादत या ज़ियारत हो, ख़ुदा नाक़िस बताता है ।


भरोसा है अगर उस पर, झिझक क्या है, हिचक फिर क्या

उसी का नाम लेता चल, अज़ाबों से बचाता है ।


न जाने क्या समझ उसकी, बहारों को ख़िज़ा कहता

हक़ीक़त जान कर भी वह, हक़ीक़त कह न पाता है ।


अदा करना जो चाहो हक़, तुम्हारी अहलीयत होगी

वगरना बेग़रज़ कोई फ़राइज़ कब निभाता है ।


तबियत आ ही जाती है जो ख़्वाहिश हो अगर उनकी

बना कर राहबर भेजे जिसे अपना बनाता  बनाता है ।


हुए गुमराह क्यों ’आनन’ ये सीम-ओ-ज़र के तुम पीछे

अगर दिल की सुना करते , सही राहें बताता है ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 424

  ग़ज़ल 424[73 फ़]

1212---1122---1212---112/22


गुनाह कर के भी होता वो शर्मसार नहीं

दलील यह है कि दामन तो दाग़दार नहीं


हज़ार रंग वो बदलेगा, झूठ बोलेगा,

मगर कहेगा कि "कुर्सी’ से उसको प्यार नहीं।


बताते ख़ुद को ही मजलूम बारहा सबको

चलेगा दांव तुम्हारा ये बार बार नहीं ।


ख़याल-ओ-ख़्वाब में जीता, मुगालते में है

कि उससे बढ़ के तो कोई ईमानदार नहीं।


दिखा के झूठ के आँसू , ख़बर बनाते हो

तुम्हारी बात में वैसी रही वो धार नहीं ।


यक़ीन कौन करेगा तुम्हारी बातों पर

तुम्हारी साख रही अब तो आबदार नहीं।


भले वो जो भी कहे सच तो है यही ’आनन’

किसी भी शख्स पे उसको है ऎतबार नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को विनोद कुमार उपाध्याय की आवाज़ में 

यहाँ सुने




ग़ज़क 423

  ग़ज़ल  423 [72-फ़]

122---122---122---122


मुख़ालिफ़ जो चलने लगी हैं हवाएँ

चिराग़-ए-मुहब्बत कहाँ हम जलाएँ ।


बला आसमानी से क्या ख़ौफ़ खाना

अगर साथ होंगी तुम्हारी दुआएँ ।


बदल जाएगी मेरी दुनिया यक़ीनन

मेरी ज़िंदगी में अगर आप आएँ ।


मिलेगा ठिकाना कहाँ और हमको

जहाँ जा के सजदे में यह सर झुकाएँ।


सभी अपने ग़म में गिरफ़्तार बैठे

यह जख़्म-ए-जिगर जा के किसको दिखाएँ ?


परिंदे शजर छोड़ कर उड़ गए हैं 

शजर कैसे अपनी जमीं छोड़ जाएँ ।


तुम्ही को ये दुनिया बनानी है ’आनन’

फ़रिश्ते उतर कर जो आएँ न आएँ ।


-आनन्द.पाठक-






ग़ज़ल 422

  ग़ज़ल 71-फ़

2122---1212---112


हाल इतना तेरा बुरा तो नहीं ।

वक़्त तेरा अभी गया तो नहीं ।


सामने हैं अभी खुली राहें ,

हौसला है,अभी मरा तो नहीं ।


एक दीपक तमाम उम्र जला

आँधियों से कभी डरा तो नहीं ।


जानता हूँ तू बेवफ़ा न सही

चाहे जो है तू बावफ़ा तो नहीं ।


इश्क अंजाम तक भले न गया

इश्क करना कोई ख़ता तो नहीं ।


आँख तेरी है क्यूँ छलक आई,

ज़िक्र मेरा कहीं हुआ तो नहीं ?


बात यह भी तो है सही ’आनन’

ज़िन्दगी क़ैद की सज़ा तो नहीं ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 421

  ग़ज़ल 421[70 फ़]

1222---1222---1222---1222


ये हस्ती चंद रोज़ां की, फ़क़त इतना फ़साना है ।

किसी के पास जाना है तो ख़ुद से दूर जाना है।

 

उमीदों से भरा है दिल कि आओगे इधर इक दिन

अक़ीदा है अभी क़ायम , क़यामत तक निभाना है ।


तुम्हे एह्सास तो होगा, तड़पता है किसी का दिल

उठा तो अब निक़ाब-ए-रुख, नफ़स का क्या ठिकाना है ।


हवाओं में घुली ख़ुशबू पता उसका बताती है 

मुझे मत रोक ऎ ज़ाहिद !मुझे उस ओर जाना है ।


ज़माने की हिदायत को भला माना कहाँ आशिक

नहीं सुनना जिसे कुछ भी, उसे फिर क्या सुनाना है ।


हमारी बुतपरस्ती की शिकायत क्यों तुम्हें, वाइज़ !

तुम्हारी राह चाहे जो, हमारी आशिक़ाना है ।


जुनून-ए-शौक़ है ज़िंदा  तभी तक मैं भी हूँ ज़िंदा 

सिवा इसके न ’आनन’ को मिला कोई बहाना है ।


-आनन्द.पाठक-



गुरुवार, 24 अप्रैल 2025

कविता 30

  कविता 30 : आसुरी शक्तियाँ




आसुरी शक्तियाँ 
पाशविक प्रवृत्तियाँ
देवासुर संग्राम में
कल भी थी, आज भी है |
रावण मरा नहीं करता है
कंस सदा ज़िंदा रहता है
मन के अंदर   
सत्य असत्य का
 द्वंद सदा चलता रहता है ।
निर्भर करता 
आप किधर किस ओर खड़े हैं
कितना कब तक आप लड़े हैं ।

-आनन्द.पाठक-

कविता 29

   कविता 29 : जब सच कर उठ कर


सच जब उठ कर ---

 सत्य ढूँढना, माना मुश्किल
झूठ फूस की ढेरी में
धुआँ धुआँ फैला देते हो
सच है तो फिर सच उठ्ठेगा
भले उठे वह देरी से ।

  झूठ मूठ के पायों पर
खड़ा तुम्हारा सिंहासन
आज नहीं तो कल डोलेगा
सच  उठ कर जब सच बोलेगा ।

-आनन्द पाठक-

कविता 28

   कविता 28 : वही तितलियाँ---

जब बचपन मे
रंग बिरंगी शोख तितलियाँ
बैठा करती थी फूलों पर
भागा करता था मै
 पीछे पीछे ।

जब भी उनको छूना चाहा
उड़ जाती थीं इतरा कर
इठला कर, मुझे थका कर ।
समय कहाँ रुकता जीवन में
वही तितलियाँ बैठ गईं अब
अपने अपने फूलों पर
पास से गुज़रूँ, पूछे हँस कर
"अब घुटनों का दर्द तुम्हारा, कैसा कविवर" ?

-आनन्द पाठक-

कविता 27

   कविता 27: सूरज निकले उस से पहले--


सूरज निकले उससे पहले

या डूबे तो बाद में उसके

रोज़ हज़ारों क़दम निकलते

कुआँ खोदते पानी पीते

तिल तिल कर हैं मरते ,जीते

सबकी अपनी अलग व्यथा है

महानगर की यही कथा है ।

-आनन्द.पाठक-


कविता 26

  कविता 26: चन्दन वन से


जब बबूल बन से गुज़रोगे
क्या पाओगे ?
राहों में  काँटे ही काँटे
दूर दूर तक  बस सन्नाटे ।

चन्दन बन से जब गुज़रोगे 
एक सुगन्ध 
भर जाएगी साँसों में
 सावधान भी रहना होगा
शाखों से लिपटे साँपों से ।

-आनन्द.पाठक-



कविता 25

   कविता 25 :ख़्वाब देखना--


ख़्वाब देखना ,बुरा नहीं है ।
हक़ है तुम्हारा।
यह किसी की दुआ नहीं है।
सिर्फ़ देखना रोज़ देखना
और देखते ही बस रहना, कुछ न करना
फिर सो जाना, फिर खो जाना
ठीक नहीं है ।
 उठो , जगो, पुरुषार्थ जगाओ
पुरुषार्थ तुम्हारा भीख नही है ।


-आनन्द.पाठक-



कविता 24

 कविता 24 :बदलते रिश्ते 


नहीं उतरते आसमान से 
कहीं फ़रिश्ते
नहीं दिखाते सच के रस्ते
लोग यहाँ ख़ुद गर्ज़ है इतने
बदले जैसे कपड़े, वैसे
रोज़ बदलते रहते रिश्ते ।

-आनन्द.पाठक-

कविता 23

  


कविता 23 [ आ0 धूमिल जी की एक कविता की प्रेरणा से]


एक देश

दूसरे देश से लड़ता है

दूसरा देश विरोध में लड़ता है ।

एक तीसरा देश भी है 

जो लड़ता नहीं, लड़ाता है  ।

अपना हथियार बेच,

मोटा मुनाफ़ा कमाता है।

मैं पूछता हूँ

वह तीसरा देश कौन है

इस विषय पर  भी U.N.O मौन है।


-आनन्द.पाठक-

कविता 22

  कविता 22 : हम भारत की--


हम भारत की विपुल संपदा

हम भारत की जनता

जहाँ विविधता में एकता।

सत्य अहिंसा के अनुगामी

संस्कृति मे हम बहुआयामी

प्रेम, दया , करूणा के द्योतक

दान, क्षमा, के हैं हम पोषक

विश्वगुरु के हम उदघोषक

हमी सनातन

जिसका रज कण भी चन्दन

भारत माँ की सतत वंदना

भारत माँ को सतत नमन ।


-आनन्द.पाठक-


कविता 21

  कविता 21 : आया ऊँट पहाड़ के नीचे--


आया ऊँट पहाड़ के नीचे

देख रहा है अँखियाँ मीचे 

मन ही मन क्या कुछ सोचे 

अयँ ?

मुझसे भी क्या कोई बड़ा  है?

यहाँ सामने कौन खड़ा है ?

 ऐसा भी होता है क्या !

 मुझसे कोई ऊँचा  क्या !

जिसने देखी झाड - झाड़ियाँ 

वह क्या समझे है पहाड़ क्या !


 अपने कद का रोब दिखाता

 अपना ही बस गाता जाता

क्या करता फिर एक आदमी

सिर्फ़ हवा में

 दाँत भींच कर मुठ्ठी भींचे

आया ऊँट पहाड़ के नीचे

आया उँट पहाड़ के नीचे ।


-आनन्द.पाठक


कविता 20

  कविता 20 : जाने क्यों ऐसा लगता है---


जाने क्यों ऐसा लगता है ?

उसने मुझे पुकारा होगा

जीवन की तरुणाई में, अँगड़ाई ले

दरपन कभी निहारा होगा

शरमा कर फ़िर, 

उसने मुझे पुकारा होगा ।

दिल कहता है

जाने क्यों ऐसा लगता है ?

--   -- 


कभी कभी वह तनहाई में 

भरी नींद की गहराई में 

देखा होगा कोई सपना

छूटा एक सहारा होगा,

 उसने मुझे पुकारा होगा

मन डरता है

जाने क्यों ऐसा लगता है ।

---

सारी दुनिया सोती रहती

लेकिन वह 

रात रात भर जागा करता , तारे गिनता

टूटा एक सितारा होगा

फिर घबरा कर

उसने मुझे पुकारा होगा ।

जाने क्यों ऐसा लगता है ॥

जाने क्यों ऐसा लगता है ।

-आनन्द.पाठक-


कविता 19

  कविता 19 : जाने यह कैसा बंधन है--


जाने यह कैसा बंधन है

गुरु-शिष्य का

वर्तमान से ज्यों भविष्य का ।

रिश्ता पावन ऐसे जैसे

स्तुति वाचन-ॠचा मन्त्र का,

गीत गीत से -छ्न्द छन्द का,

फ़ूल फ़ूल से - गन्ध गन्ध का,

जैसे पानी का चंदन से,

भक्ति भावना का वंदन से,

शब्द भाव का--नदी नाव का,

बिन्दु-परिधि का, केन्द्र-वृत्त का,

जीवन-घट का और मृत्तिका,

दीप-स्नेह का और वर्तिका ।

बाहों का मधु आलिंगन से

एक अदृश्य -सा अनुबंधन है ।

जाने यह कैसा बंधन है ।


-आनन्द.पाठक--


कविता 18

  कविता 18 : कह न सका मैं---


कह न सका मैं 

जो कहना था ।

मौन भाव से सब सहना था।

तुम ही कह दो।


शब्द अधर तक आते आते

ठहर गए थे।

अक्षर अक्षर बिखर गए थे।

आँखों में आँसू उभरे थे ।

 पढ़ न सका मैं |

जो न लिखा था

तुम ही पढ़ दो।

कह न सकी जो तुम भी कह दो

कह न सका मैं , तुम ही सुन लो।


-आनन्द.पाठक-


कविता 17

  कविता 17


कल तुमने यह पूछा था

वह कौन थी ? 

भाव मुखर थे, ग़ज़ल मौन थी ।


मेरी ग़ज़लों के शे’रों के

 मिसरों में 

चाहे वह अर्कान रहा हो

लफ्जों का औजान रहा हो

रुक्नो का गिरदान रहा हो

मक्ता था या मतला था

अक्षर अक्षर में

सिर्फ तुम्हारा रूप ढला था

मेरे भावों की छावों में 

जो लड़की  गुमसुम गुमसुम थी

वह तुम थी , हाँ वह तुम थी।


’अइसा तुमने काहे पूछा ?

तुम्हरा मन में ई का सूझा ?’


-आनन्द.पाठक-

कविता 16

   कविता 16/01: बस्तियाँ जलती हैं--


बस्तियाँ जलती हैं
चूल्हे बुझते हैं, 
सपने मरते हैं ।
कर्ज उतारना था
बेटी ब्याहना था 
बेटा पढ़ाना था।
कौन है वो लोग
जो बुझे चूल्हे पर
सेंकते है रोटियाँ
गिन रहे
संसद भवन की सीढियाँ


-आनन्द.पाठक-

कविता 15

  

कविता  15

 

मन बेचैन रहा करता है

न जाने क्यों ?

उचटी उचटी नींद ज़िन्दगी

इधर उधर की बातें आतीं

टूटे-फूटे सपने आते

खंड-खंड में जीवन लगता

बँटा हुआ है।

धुँधली-धुँधली, बिन्दु-बिन्दु सी

लगती मंज़िल

लेकिन कोई बिन्दु नहीं जुड़ पाता मुझसे

न जाने क्यों ।

 

एक हाथ में कुछ आता है

दूजे हाथ फिसल जाता है

रह रह कर है मन घबराता

न जाने क्यों ।

 

-आनन्द.पाठक-

 

 

कविता 14

  

-कविता 14 

 

जीवन के हर एक मोड़ पर

कई अजनबी चेहरे उभरे

भोले भाले

कुछ दिलवाले

चार क़दम चल कर,

कुछ ठहरे

कुछ अन्तस में

गहरे उतरे ।

 

जब तक धूप रही जीवन में

साया बन कर साथ रहे

हाथों में उनके हाथ रहे

अन्धकार जब उतरा ग़म का

छोड़ गए, मुँह मोड़ गए कुछ

वो छाया थे।


फिर वही जीवन एकाकी

आगे अभी सफ़र है बाक़ी

लोग यहाँ पर मिलते रहते

जुड़ते और बिछड़ते रहते

क्या रोना है

क्यों रोना है

जीवन है तो यह होना है ।

कविता 13

   कविता 13 


मैं हूँ 

मेरे  मन के अन्दर 

गंगा जी की निर्मल धारा

मन उँजियारा

शंखनाद से पूजन अर्चन

सुबह-शाम की भव्य आरती

चलता रहता भगवत कीर्तन

मन मेरा है सुबह-ए-बनारस

क्षमा दया और करुणा रस


मैं हूँ 

मेरे मन के अन्दर 

कहीं खनकती 

पायल-घुँघरु की झंकारें 

गजरे की ख़ुशबू

मुझे पुकारें

महफ़िल सजती 

हुस्न-ओ-अदा जब नाज़नीन की

जादू करती

रंग महल में ताता-थैय्या .रूप , रुपैय्या

तब मेरा दिल शाम-ए-अवध है


मैं हूँ 

मेरे मन के अन्दर

खिचीं मुठ्ठियाँ इन्क़्लाब की

तेज़ रोशनी आफ़ताब की

कहीं दहकते दिल में शोले

कहीं चाँदनी माहताब की


मन के अन्दर राम बसे है

मन में ही रावन बसता है

इस मन में ही कृष्ण कन्हैया

 इक कोने में 

"कंस’ खड़ा हो कर हँसता है


यह सब हैं तेरे भी अन्दर

किसे बसाना ,किसे मिटाना

तुझको ही यह तय करना 

कौन राह  तुझको चलना 


-आनन्द,पाठक-


कविता 12

  कविता 12 


गिद्ध नहीं वो

दॄष्टि मगर है गिद्धों जैसी

और सोच भी उनकी वैसी ।

हमें लूटते कड़ी धूप में 

खद्दरधारी टोपी पहने ।

रंग रंग की कई टोपियाँ

श्वेत-श्याम हैं और गुलाबी

नीली, पीली, लाल ,हरी हैं

’कुरसी’ पर जब नज़र गड़ी है

’जनता’ की कब किसे पड़ी है

ढूँढ रही हैं ज़िन्दा लाशें

पाँच बरस की ”सत्ता’ जी लें


ऊँची ऊँची बातें करना

हर चुनाव में घातें करना

हवा-हवाई महल बनाना

शुष्क नदी में नाव चलाना

झूठे सपने दिखा दिखा कर 

दिल बहलाना, मन भरमाना

संदिग्ध नहीं वो

सोच मगर संदिग्धों जैसी

गिद्ध नहीं वो 

दॄष्टि मगर है गिद्धों जैसी ।


-आनन्द.पाठक-


कविता 11

 

कविता 11

----2-अक्टूबर- गाँधी जयन्ती----


अँधियारों में सूरज एक खिलानेवाला
जन गण के तन-मन में ज्योति जगानेवाला
गाँधी वह जो क्षमा दया करूणा की मूरत
फूलों से चटटानों को चटकाने वाला


क़लम कहाँ तक लिख पाए गाँधी की बातें
इधर अकेला दीप, उधर थी काली रातें
तोड़ दिया जंजीरों को जो यष्टि देह से
बाँध लिया था मुठ्ठी में जो झंझावातें


आज़ादी की अलख जगाते थे, गाँधी जी
’वैष्णव जण” की पीर सुनाते थे, गाँधी जी
सत्य अहिंसा सत्याग्रह से, अनुशासन से
सदाचार से विश्व झुकाते थे, गाँधी जी


गाँधी केवल नाम नहीं है, इक दर्शन है
लाठी, धोती, चरखा जिनका आकर्षन है
सत्य-अहिंसा के पथ पर जो चले निरन्तर
गाँधी जी को मेरा सौ-सौ बार नमन है


-आनन्द.पाठक- इसी गीत को सुनें मेरी आवाज़ में---



कविता 10

  

कविता 10 

 

स्मृति वन से

एक पवन का झोंका आया

गन्ध पुरानी लेता आया ।

लगा खोलने जीवन की पुस्तक के पन्ने

हर पन्ना कुछ बोल रहा था।

कुछ पन्ने थे खाली खाली

कटे फ़टे कुछ, स्याही बिखरे

कुछ पन्नों पर कटी लाइने।

इक पन्ने पर अर्ध-लेख था-

एक अधूरी लिखी कहानी

जो लिखना था, लिख न सका था

जो न लिखा था पढ़ सकता हूँ

यादें फिर से गढ़ सकता हूँ ।

कुछ गुलाब की पंखुड़ियाँ थीं

हवा ले गई उसे उड़ा कर

अब न ज़रूरत उसको मेरी

यादें बस रह गई घनेरी

वह गुलाब-सी,

सजी किसी के गुलदस्ते में।

जीवन कहाँ रुका करता है

सब अपने अपने रस्ते में

यादों का क्या-

यादें आती जाती रहतीं

आँखें नम कर जाती रहतीं

 

-आनन्द पाठक-

यह कविता मेरी आवाज़ में सुनें--



कविता 09

  

कविता 09 


फूल बन कर कहीं खिले होते

जनाब ! हँस कर कभी मिले होते

किसी की आँख के आँसू

बन कर बहे होते

पता चलता

यह भी ख़ुदा की बन्दगी है

क्या चीज़ होती ज़िन्दगी है ।


मगर आप को फ़ुरसत कब थी

साज़िशों का ताना-बाना

बस्ती बस्ती आग लगाना

थोथे नारों से

ख्वाब दिखाना।

सब चुनाव की तैयारी है

दिल्ली की कुर्सी प्यारी है।

 

-आनन्द.पाठक-

प्र 15-सितम्बर-22

यह कविता मेरी आवाज़ में सुने---



 

कविता 08

  

-कविता-08 

 

कितना आसान होता है

किसी पर कीचड़ उछालना

किसी पर उँगली उठाना

आसमान पर थूकना

पत्थर फेकना।

मासूम परिन्दों को निशाना बनाना

कितना आसान होता है

किसी लाइन को छोटा करना

उसे मिटाना

आग लगाना, आग लगा कर फिर फ़ैलाना

अच्छा लगता है

अपने को कुछ बड़ा दिखाना।

बड़ा समझना

तुष्टि अहम की हो जाती है

उसको सब अवसर लगता है

सच से उसको डर लगता है ।

 -आनन्द.पाठक-  

प्र0 11-04-22

यह कविता मेरी आवाज़ में सुने---


कविता 07

  एक कविता 07:  सूरज निकल रहा है.......


सूरज निकल रहा है
मेरा देश,सुना है
आगे बढ़ रहा है ,
सूरज निकल रहा है

रिंग टोन से टी0वी0 तक
घिसे पिटे से सुबह शाम तक
वही पुराने बजते गाने
सूरज निकल रहा है

लेकिन सूरज तो बबूल पर
टँगा हुआ है
भ्रष्ट धुन्ध से घिरा हुआ है
कुहरों की साजिश से
घिरी हुई प्राची की किरणें
कलकत्ता से दिल्ली तक
धूप हमारी जाड़े वाली
कोई निगल रहा है
सूरज निकल रहा है

एक सतत संघर्ष चल रहा
आज नहीं तो कल सँवरेगा
सच का पथ
नहीं रोकने से रुकता है
सूरज का रथ
’सत्यमेव जयते’ है तो
सत्यमेव जयते-ही होगा
काला धन पिघल रहा है

-आनन्द.पाठक-



कविता 06

 


कविता 06

कितने पौरुष वीर पुरुष है !
हाथों में बंदूक लिए
नारी को निर्वसना कर के
हांक रहे है सीना ताने
मरा नहीं दुर्योधन अब भी
जिंदा है हर गाँव शहर में
अगर मरा है
'धर्मराज'का सत्य मरा है
'अर्जुन ' का पुन्सत्व मरा है
'भीम' का भीमत्व मरा है
दु:शासन तो अब भी जिंदा
अट्टहास कर हंसता-फिरता
हाथों में बंदूक लिए
पांचाली का चीर चीरता
क्या अंतर है ????
कुरुक्षेत्र हो ,बांदा हो , चौपारण हो
हमें प्रतीक्षा नहीं कि
कोई कृष्ण पुन: गीता का उपदेश सुनाए
अपना अपना कुरुक्षेत्र है
संघर्ष हमें ही करना होगा
हमे स्वयं ही लड़ना होगा
इसी व्यवस्था में रह कर
इन्द्र-प्रस्थ फिर गढ़ना होगा

-Anand.pathak-





कविता 05

 कविता 05


मृदुल अंकुर भी
तोड़ कर पत्थर पनपती है
एक उर्जा-शक्ति
अंतस में धधकती है
'मगर हम आदमी है
उम्र भर लड़ते रहे नित्य-प्रति की शून्य अभावों से
रोज़ सूली पर चढ़े - उतरे
आँख में आंसू भरे
और तुम?
 देवता बन कर बसे
जा पहाडों में ,गुफाओं में कन्दराओं में !
या नदी के छोर
दूर सागर से,कहीं उस पार
या किसी अनजान से थे द्वीप
या पर्वतों की कठिन दुर्गम चोटियां
वह पलायन था तुम्हारा??
या संघर्षरत की चूकती क्षमता ??
या स्वयं को निरीह पाना ??
या की हम से दूर रहना ??
हम मनुज थे
आदमी का था अदम्य साहस
खोज लेंगे ,आप के आवासस्थल
कंदराओं में  गुफाओं में
यह हमारी जीजिविषा है
काट कर पत्थर पहाडों के
बाँध कर उत्ताल लहरें , सेतु-बन्धन
गर्जनाएं हो समंदर की
या कि दुर्गम चोटियां
हो हिमालय की , शिवालिक की
आ गएँ हैं पास भगवन !
यह हमारी शक्ति है
भाग कर हम जा नहीं बसते
कन्दराओं मे, गुफाओं में
क्यों कि हम आदमी है
शून्य अभावों में
संघर्षरत रहना हमारी नियति है

-आनन्द  पाठक -

यही कविता मेरी आवाज़ में सुने---


कविता 04

 एक कविता 04--


तुम जलाकर दीप
रख दो आँधियों में \
जूझ लेंगे जिन्दगी से
पीते रहेंगे
गम अँधेरा ,धूप ,वर्षा
सब सहेंगे \
बच गए तो रोशनी होगी प्रखर
मिट गए तो गम न होगा \
धूम-रेखा लिख रही होगी कहानी
"जिन्दगी मेरी किसी की भीख न थी --

-आनन्द पाठक---



यही कविता मेरी आवाज़ में सुने---

कविता 03

 कविता 03


प्यासी धरती प्यासे लोग !

इस छोर तक आते-आते
सूख गई हैं कितनी नदियाँ
दूर-दूर तक रह जाती है
बंजर धरती ,रेत, रेतीले टीले
उगती है बस झाड़-झाडियाँ
पेड़ बबूल के तीखे और कँटीले
हाथों में बन्दूक लिए ए०के० सैतालिस
साए में भी धूप लगे है

'बुधना' की दोआँखे नीरव
 प्यास भरी है
सुना कहीं से
'दिल्ली' से चल चुकी नदी है
आयेगी  उसके भी गाँव
ताल-तलैया भर जायेंगे
हरियाली फ़िर हो जायेगी
हो जायेगी धरती सधवा

लेकिन कितना भोला 'बुधना'
नदियाँ इधर नहीं आती हैं
उधर खड़े हैं बीच-बिचौलिए
'अगस्त्य-पान' करने वाले
मुड़ जाती है बीच कहीं से
कुछ लोगों के घर-आँगन में
शयन कक्ष में
वर्ष -वर्ष तक जल-प्लावन है

कहते हैं वह भी प्यासे
प्यासे वह भी,प्यासे हम भी
दोनों की क्या प्यास एक है?
"परिभाषा में शब्द-भेद है "

-आनन्द.पाठक-



यही कविता मेरी आवाज़ में सुने---

कविता 02

 कविता 02


महानगर है
कहते हैं यह महानगर है
गिर जाए बीज अगर भूले से
उगता नहीं ,यहाँ जीता है
कारों के पहिए के नीचे
दब जाते हैं कितने अंकुर

जीने को मिलती सीलन
एक सडन ,संत्रास ,घुटन
जहरीली हवा अँधेरा ,
जिनका कोई नही सवेरा
श्वास-श्वास में भरा धुआ है
जीवन जैसे अंध कुआ है
हर दिवस ही महासमर है
महानगर है
--- ---
फिर उगती कैक्टस की पौध
नागफनी के कांटे
शून्य ह्रदय ,संवेदनहीन
पसरे फैले दूर-दूर तक
अंतहीन सन्नाटे
नहीं उगते हैं चंदन वन
रक्तबीज के वंशज उगते
वृक्षों पर नरभक्षी उगते
टहनी पर बदूकें उगती
पास गए तो छाया चुभती
कुछ लोग तो पाल-पोस
गमलों में रखते
शयन-कक्ष में,घर-आँगन में
धीरे-धीरे फ़ैल-फ़ैल कर
शयन-कक्ष से, घर से बढ़ कर
गली-गली में बढ़ते -बढ़ते
हो जाता संपूर्ण शहर
जंगल ही जंगल
कांक्रीट का जंगल
-- --- --
कांक्रीट के जंगल में
आता नहीं वसंत
बस आते कौओं के झुंड
गिध्धों की टोली
नहीं गूंजती कोयल बोली
गूंजा करते बम्ब धमाके
बंदूकों की गोली

फूल पलाश के लाल नहीं दिखते हैं
रंग देते हैं हमी शहर के दीवारों को

लाल-रंग से खून के छीटें
नहीं सुनाती संगीत हवाएं
मादक द्रव्य सेवन करते
हमी नाचते झूमे-गाएं
हमी मनाते गली-शहर
दिग-दिगंत ,अपना वसंत

-----
सच है यह भी
इस जंगल के मध्य अवस्थित
कहीं एक छोटा -सा उपवन
नंदन -कानन
छोटा-सा पोखर ,शीतल-जल,मन-भावन
अति पावन
पास वहीं केसर की क्यारी
महक रही है
हरी मखमली घास चुनरिया
पसरी फैली हुई लताएँ

अल्हड़ युवती -सी
महकी -महकी हुई हवाएं रजनी-गंधा सी


काश ! कि यह छोटा उपवन
फ़ैल-फ़ैल जंगल हो जाता
जन-जन का मंगल हो जाता

-आनन्द पाठक--



यही कविता मेरी आवाज़ में सुने---

कविता 01

 कविता 01


आप क्यों उदास रहते हैं ?
अतीत की कोई
अनकही व्यथा दर्द

आंखों में उतर आता है
नीरव आंखो की दो-बूंद
सागर की अतल गहराइयों से
कहीं ज्यादा गहरा
कहीं ज्यादा अगम्य हो जाता है

आप के अंतस का दावानल
सूर्य की तपती किरणों से

कहीं ज्यादा तप्त व दग्ध हो जाता है
उदासी का यह चादर फेंक दे अनंत में
और देखें अनागत वसंत
लहरों का उन्मुक्त प्रवाह
जिन्दगी की सुगंध
जो आप के आस-पास रहती हैं
फिर आप क्यों उदास रहते हैं
आप क्यों उदास रहते हैं

-आनन्द.पाठक-



यही कविता मेरी आवाज़ में सुने---



बुधवार, 23 अप्रैल 2025

मुक्तक 21

 1

2122   2122   212
जो भी कहना था उन्हें वह कह गए
हम सियासत में उलझ कर रह गए
'वोट' वो आँसू बहा कर माँगते
भावनाओं में हम आकर बह गए ।

2
221    2121    1221   212
ग़ैरों से तेरे हाल की मिलती रही खबर
हर रोज देखता रहा तेरी ही रहगुजर
वैसे तमाम उम्र तेरा मुंतजिर रहा
ऐ जान! क्यों न भूल से आई कभी इधर?

3
122   122   122   122
कटी उम्र, उनको बुलाते बुलाते
जमाना लगेगा उन्हे आते आते
सफर जिंदगी में वो गाहे ब गाहे
हमे बेसबब क्यों रहे आजमाते

4
122    122   122   122
इशारों से गर तुम न हमको बुलाते
गुनह जाने हमको कहाँ ले के जाते
अगर दिल मे होता उजाला न तुमसे
सही क्या, ग़लत क्या, कहाँ जान पाते

-आनन्द पाठक -



मुक्तक 20

 1

221  1221   1221   122
शोलों को हवा देने की साजिश जो रचोगे
भड़केगी अगर आग तो क्या तुम न जलोगे ?
गोली न ये बंदूक, न तलवार , न चाकू
मर जाएगा 'आनन' जो मुहब्बत से मिलोगे

2
122   122   122   122
वो अपना नहीं था जिसे अपना जाना
मगर शर्त उसकी मुझे था निभाना
बदन खाक की खाक मे ही मिलेगी
तो फिर किसलिए इस पे आँसू बहाना

3
122   122   122   122
जो करता है जैसा वो भरता यहीं है
यहाँ मौत से कौन डरता नहीं है 
मुकर्रर है जो दिन तो जाना ही होगा
कोई बाद उसके ठहरता  नहीं है ।

4
122   122    122    122
बहुत दे चुके तुम होअपनी सफाई
बहुत कर चुके तुम हो बातें हवाई
ये जुमले तो सुनने मे लगते हैं अच्छे
मगर इनसे रोटी न मिलती है भाई

-आनन्द पाठक-

मुक्तक 19

  मुक्तक 19 : आइने से


1
1212---1122--1212---112
इसी सवाल का मैं ढूँढता जवाब रहा
मेरा नसीब था या ख़ुद ही मैं ख़राब रहा
ये बात और है उसने मुझे पढ़ा ही नहीं
वगरना सबके लिए मैं खुली किताब रहा

2
2122   2122   2122  2
बात तो वह कर रहा था चाँद लाने की
ढूँढता अब राह रोजाना बहाने की
 दे रहा था वह खटाखट, हम न ले पाए
बात अब तो रह गई सुनने सुनाने की ।

3
2122  2122  212
मुझ-सा कोई तेरा दीवाना नहीं
तूने जाने क्यों मगर माना नहीं
एक दिन मै भी तेरा हो जाऊँगा
क्या करूँ मैं, खुद को पहचाना नहीं

4
2122  2122  212
है हकीकत, कोई अफसाना नहीं
क्यों जमाने से है याराना  नहीं
उम्र भर तो तुम मुखौटो पर जिए
इसलिए खुद को कभी जाना नहीं

-आनन्द.पाठक-

मुक्तक 18

  मुक्तक 18 : आइने से


1

122---122---122---122

मुकर्रर था जो दिन कज़ा का तो आई

भला कब कहाँ दिखती ऐसी वफ़ाई

अदा-ए-क़ज़ा देख हैरत में ’आनन’

कि बस मुस्कराती न सुनती दुहाई


  2

जब देश पे मिटने की खातिर, अनजाने मस्ताने निकले

सरमस्तों की टोली निकली,घर घर से दीवाने निकले

पर आज सि़यासत मे सबने ,लूटा है झूटे वादे कर 

वो ग़ैर नहीं सब अपने थे , सब जाने पहचाने निकले।


3

2122---2122---212

ज़िंदगी बेलौस  कुछ गाती तो है

जो भी हो जैसी भी हो भाती तो है

दीप चाहे हो किसी का भी कहीं

रोशनी छन छन सही आती तो है ।


4

1222---1222---1222---1222

उसे मालूम है उसके बिना मैं रह नहीं सकता

सितम मैं सह तो सकता हूं जुदाई सह नहीं सकता।

ज़माने भर में केवल मैं कि जिसकी है ज़ुबाँबंदी

जो कहना भी अगर चाहूँ तो मै कुछ कह नहीं सकता ।


-आनन्द.पाठक-


मुक्तक 17

  मुक्तक 17 : समंदर से 


1/05
221---2121---1221---212
बस आप की झलक से ही चढ़ता सुरूर है
क्या इश्क़ है? अदब है, मुजस्सम शुऊर् है
हुस्न-ओ-जमाल यूं तो इनायत ख़ुदा की है
किस बात का हुज़ूर को इतना गुरूर है ।

2/22
2122----2122---2122---2122
इन्क़लाबी मुठ्ठियाँ तू खींच कर एलान कर दे
एक तिनके को ख़ुदा चाहे तो फिर जलयान कर दे
गर हवा सरमस्त भी हो क़ैद कर सकता है तू
हौसला दिल में जगा कर राह तू आसान कर दे ।


3/6
1222   1222   1222  1222
कभी लगता है, आने को ,अचानक आ के उड़ जाती 
जहाँ ख्वाबों को गाना था वहाँ पीड़ा स्वयं गाती
अजब क्या चीज है यह नींद जो आँखों में बसती है
जब आनी है तो आती है, नहीं आनी, नहीं आती

4/21
2122   2122   2122   212
आप  हैं  ईमां मुजस्सम, बेइमां हम भी नहीं
आप खुदमुख्तार हैं तो बेनिशाँ हम भी  नहीं
यह शराफत है हमारी आप की सुन गालियाँ
चुप हैं हम,वरना सुनाते बेजुबां हम भी नहीं।

-आनन्द पाठक-

इन्हीं मुक्तक कॊ आ0 विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] की आवाज़ में यहाँ सुनें--

सुनिए-

https://www.facebook.com/share/v/15BTPL248B/

मुक्तक 16

 मुक्तक 16: समंदर से[ क़ता’]

1/25
1222---1222---1222---1222
अगर एहसास है ज़िंदा तो राह-ए-दिल सही मिलती
वगरना इन अँधेरों में कहाँ से रोशनी मिलती ।
तेरा होना, नही होना, भरम है भी तो अच्छा है 
न  होता तू तसव्वुर में कहाँ फिर ज़िंदगी मिलती ।

2/09
1222    1222  1222  22
नज़र आया उन्ही का हुस्न माह ए कामिल में
नहीं उतरा नहीं आया कोई उन सा दिल में
बचाता खुद को तो कैसे बचाता मै 'आनन'
बला की धार थी उनकी निगाह ए क़ातिल में

3/19
1222---1222---1222---122
न जाने किस दिशा से ग़ैब से ताक़ीद आती है
अभी कुछ साँस बाक़ी है, नज़र उम्मीद आती है
जो अफ़साना अधूरा था विसाल-ए-यार का ’आनन’
चलो वह भी सुना दो अब कि मुझको नींद आती है ।

4/18
1222---1222---1222---1222
ये उल्फ़त की कहानी है कि पूरी हो न पाती है
कभी अफ़सोस मत करना कि हस्ती हार जाती है
पढ़ो ’फ़रहाद’ के किस्से यकीं आ जायेगा तुमको
मुहब्बत में कभी ’तेशा’ भी बन कर मौत आती है ।

-आनन्द.पाठक-

-

मुक्तक 15

  मुक्तक 15 : समंदर से[क़ता’]

1/30

221---2121---1221---212

खुशियाँ तमाम लुट गई है कू-ए-यार में 

जैसे हरा-सा पेड़ कटा  हो बहार में ।

जैसे कटी है आज तलक ज़िंदगी मेरी

बाक़ी कटेगी वह भी तेरे इन्तजार में ।


2/31

221---2121---1221---212

चढ़ती हुई नदी थी, चढ़ी और उतर गई

जैसे कि आरज़ू  हो किसी की  बिखर गई

वैसे तमाम उम्र खुशी  ढूँढती रहीं

आ कर भी मेरे पास बगल से गुज़र गई


3/36

1222---1222---1222---1222

कभी इन्कार करती हो, कभी उपहार देती हो

मुझे हर बार जीने का नया आधार देती  हो,

मुहब्बत का अजब तेरा तरीका है मेरे जानम !

कभी पुचकार लेती हो, कभी दुतकार देती हो ।


4/27

221---2122 // 221-2122 

कश्ती भी पूछती है, साहिल कहाँ है मेरा

मजलूम ढूँढता है ,आदिल कहाँ है मेरा 

क़ातिल निगाह उनकी, ख़ंज़र भी उनके हाथों

उनसे ही पूछता हूँ, क़ातिल कहाँ है मेरा ।


-आनन्द.पाठक-





मुक्तक 14

 मुक्तक 14:  समंदर से [क़ता’]



1/33
1222---1222---1222---1222
भला कब डूबने देंगे तुम्हारे चाहने वाले
दुआ कर के बचा लेंगे, तुम्हारे चाहने वाले
पता तुमको न हो शायद, इज़ाज़त दे के तो देखो
कि पलकों पर बिठा लेंगे, तुम्हारे चाहने वाले ।

2/13
2122--2122---212
 राह-ए-उल्फ़त में कभी ऐसा तो कर
दिल को तू पहले अभी शैदा तो कर
सिर्फ़ सजदे में पड़ा है बेसबब
इश्तियाक़-ए-इश्क़ भी पैदा तो कर । 

3/12
212---212--212---212
कोई कहता नहीं, उनसे मेरी तरह
कोई खुलता नहीं दिल से मेरी तरह
जो मिले मुझसे, चेहरे चढ़ाए हुए
कोई मिलता नहीं मुझसे मेरी तरह ।

4/29
2212----2212----2212----2212
नासेह ये तेरा फ़लसफ़ा नाक़ाबिल-ए-मंज़ूर
क्या सच यहाँ कि हूर से बेहतर वहाँ की हूर ?
याँ सामने है मैकदा और तू बना है पारसा
फिर क्यों ख़याल-ए-जाम-ए-जन्नत से हुआ मख़्मूर है ।

-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
  [इश्तियाक-ए-इश्क़ = प्रेम की लालसा]\
पारसा = संयमी
मख़्मूर  = ख़ुमार में

मुक्तक 13

  

मुक्तक 13 : समंदर से [क़ता’]

1/16

1222---1222---1222---1222

वो मेरे ख़्वाब क्या थे और क्या ताबीर थी मेरी

जो वक़्त-ए-जाँ-ब-लब देखा, फटी तसवीर थी मेरी

मिलाया ख़ाक में मुझको, जो पूछू तो मैं क्या पूछूं

हुनर था वो तुम्हारा या कि फिर तकदीर थी मेरी ।


2/03

1222---1222--1222--1222

 कहीं मुझको जो तुम दिखती, मैं बेबस क्यों मचलता हूं ?

कभी यह दिल भटकता है, कभी गिर कर सँभलता हूँ ।

ज़माने की हज़ारों बंदिशे क्यों फ़र्ज़ हो मुझ पर ?

अकेला मैं ही क्या ’आनन’ जो राह-ए-इश्क़ चलता हूँ ?


3/35

1222---1222---1222---1222

कभी जब आग लगती है किसी के दिल के अंदर तक

किसे परवा कि कितने पेंच-ओ-ख़म होंगे तेरे दर तक

अगर होती नहीं उसके लबों पर तिश्नगी ’आनन’

भला कटता सफ़र कैसे नदी का इक समंदर  तक ।


4/34

1222---1222---1222---1222

नवाज़िश भी नहीं उसकी, शिकायत भी नहीं करता

न जाने क्या हुआ उसको, क़राबत भी नही करता ।

ज़माने की हवाओं से वो क्यों बेजार  रहता है ,

वो नफ़रत तो नहीं करता, मुहब्बत भी नहीं करता ।


-आनन्द.पाठक-


मुक्तक 12

 मुक्तक 12: समन्दर से [क़ता’]

1/38

221--2121--1221--212

वह झूठ बोलता है , हुनरमंद यार है

ईमान बेचकर भी वो ईमानदार है

कर के गुनाह-ओ-जुर्म भी वह मुस्करा रहा

कहते सभी वो शख़्स बड़ा होशियार है ।


2/37

221---2121---1221---212

क्या इश्क़ है ग़लत कि सही? और बात है,

हसरत अयाँ न हो कि दबी ,और बात है ,

हाज़िर है मेरी जान मुहब्बत में आप की

माँगा न आप ने ही कभी, और बात है ।


3/1

1222---1222----1222---1222

ये दिल बेचैन रहता है अगर उनको नही पाता

भले गुलशन हो सतरंगी, बिना उनके नहीं भाता

सकून-ओ-चैन, ज़ेर-ए-हुक्म उनके आने जाने पर

वो आते हैं तो आता है, नहीं आते नही आता ।

4/8

2122---2122---212

ग़ौर से देखा नहीं खुद आप ने

झूठ कब बोला किए हैं आइने

खुद का चेहरा ख़ुद नज़र आता नहीं

जब तलक न आइना हो सामने ।


-आनन्द.पाठक-



मुक्तक 11

  मुक्तक 11- समन्दर से [क़ता’]


1/14

कुछ करो या ना करो इतना करो
है बची ग़ैरत अगर ज़िन्दा  करो
 कौन देता है  किसी  को रास्ता
 ख़ुद नया इक रास्ता  पैदा  करो ।


2/17
महफ़िल में लोग आए थे अपनी अना के साथ
देखा नहीं किसी को भी ज़ौक़-ए-फ़ना  के साथ
नासेह ! तुम्हारी बात में नुक्ते की बात  है 
दिल लग गया है  मेरा किसी  आश्ना  के साथ\।

3/10
122---122---122--122
यूँ जितना भी चाहो दबे पाँव आओ
हवाओं की खुशबू से पहचान लूंगा
अगर  मेरे दिल से निकल कर दिखा दो
तो फिर हार अपनी चलो मान लूँगा |

4/07
1212   1122   1212   22
निकल गए थे कभी छोड़ कर जो घर अपने
तो मुड़ के देखते भी क्या नफ़ा-ज़रर अपने
जहाँ जहाँ पे दिखे थे हमें क़दम उनके
वही वहीं पे झुकाते गए थे  सर अपने  ।

 -आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

नफ़ा-ज़रर = हानि-लाभ

मुक्तक 10

  मुक्तक 10 : चुनावी मुक्तक


:1:

राजतिलक की है तैयारी

सब ही माँगे भागीदारी ,

एक हमी तो ’हरिश्चन्द्र; हैं

बाक़ी सब हैं भ्रष्टाचारी ।

:2:

कुरसी देख देख मन डोले

माल दिखा तो पत्ता खोले

भरे तराजू मेढक सारे

कैसे कोई इनको तोले

:3:

सबके अपने अपने नारे

कर्ज माफ कर देंगे सारे

यह अपनी "गारंटी" भइया

'वोट' हमें जब देगा प्यारे !

:4:

रोजगार हम घर घर देंगे

तुझको भी हम अवसर देंगे

मुफ्त रेवड़ी राशन-पानी

से तेरा हम घर भर देंगे


:5:

ये सब हैं मौसामी परिंदे

’वोट’ माँगना- इनके धन्धे

वोट जिसे भी चाहे देना

आँख खोल कर देना , बंदे !

-आनन्द पाठक-

मुक्तक 09

 चुनावी मुक्तक 


:1:

खबरों का बाजार गर्म है,
राजनीति में झूठ धर्म है,
भाँज हवा में तलवारें बस
हर चुनाव का यही मर्म है ।

2:
वादे हैं वादों का मौसम
जन्नत भी लाकर देंगे हम
’वोट’ हमी को देना प्यारे!
बाद कहाँ तुम ! बाद कहाँ हम !

;3:
ऊँची ऊँची फ़ेंक रहा ,वह
अपनी रोटी सेंक रहा, वह
जुमलों का बाज़ार सजाए -
सच कहने से झेंप रहा, वह ।

:4:
कितना हूँ मैं भोला भाला
ना खाया , ना खाने वाला
पहले आने दे ’कुरसी’ पर
रामराज फिर आने वाला ।

;5:
सुन मेरे आने की आहट
दे दे अपना वोट फटाफट
भर दूँगा मैं ’खाता’ तेरा 
गिरते रहना नोट खटाखट ।

-आनन्द.पाठक-

मुक्तक 08

  कुछ मुक्तक 05E : दीपावली पर


:1:

पर्व दीपावली का मनाते चलें

प्यार सबके दिलों में जगाते चलें

ये अँधेरे हैं इतने घने भी नहीं

हौसलों से दि्ये हम जलाते चलें


:2:

आग नफ़रत की अपनी मिटा तो सही

तीरगी अपने दिल की हटा तो सही

इन चराग़ों की जलती हुई रोशनी

राह दुनिया को मिल कर दिखा तो सही


:3:

कर के कितने जतन प्रेम के रंग भर

अल्पनाएँ सजा कर खड़ी द्वार पर

एक सजनी जला कर दिया साध का

राह ’साजन’ की तकती रही रात भर


:4:

प्रीति के स्नेह से प्राण-बाती जले

दो दिये जल रहे हैं गगन के तले

लिख रहें हैं कहानी नए दौर की

हाथ में हाथ डाले सफ़र पर चले 


:5:

घर के आँगन में पहले जलाना दिये

फिर मुँडेरों पे उनको  सजाना. प्रिये !

राह सबको दिखाते रहें दीप ये-

हर समय रोशनी का ख़जाना लिए ।


-आनन्द पाठक-

मुक्तक 07

  :1: 

कहीं कुछ बात ऐसी है, छुपा कर रह गई तुम भी
जो होंठो पर रही बातें, दबा कर रह  गई तुम भी
ये मेरा क्या कि तनहा था कि तनहा ही रहूँगा मैं
जगे थे दर्द जो दिल में सुला कर रह गई तुम भी

:2:
आस्माँ देखते ना चला कीजिए
ठोकरों से ज़मीं पर बचा कीजिए
ज़िंदगी का सफ़र एक लम्बा सफ़र
हर क़दम सोच कर ही रखा कीजिए

:3:
कभी कभी तो डर लगता है कैसे प्यार सँभालूँगा मैं
इतना प्यार जो तुम करती हि कैसे कर्ज उतारूँगा मैं
देख रहा हूँ ख़्वाब अभी से आने वाले कल की जानम
इन्शा अल्लाह इक दिन तुमको पलकों पर बैठा लूंगा मैं

;4:
कुरबत ने कुछ तो दिल में उम्मीद है जगाई
आए थे ख़्वाब रंगी ,ना नींद आज आई
जाने किधर को लेकर जाएगा दिल दिवाना
यह कैसी तिश्नगी है ये कैसी आशनाई


-आनन्द.पाठक-

मुक्तक 06

  :1: 

कहीं कुछ बात ऐसी है, छुपा कर रह गई तुम भी
जो होंठो पर रही बातें, दबा कर रह  गई तुम भी
ये मेरा क्या कि तनहा था कि तनहा ही रहूँगा मैं
जगे थे दर्द जो दिल में सुला कर रह गई तुम भी

:2:
आस्माँ देखते ना चला कीजिए
ठोकरों से ज़मीं पर बचा कीजिए
ज़िंदगी का सफ़र एक लम्बा सफ़र
हर क़दम सोच कर ही रखा कीजिए

:3:
कभी कभी तो डर लगता है कैसे प्यार सँभालूँगा मैं
इतना प्यार जो तुम करती हि कैसे कर्ज उतारूँगा मैं
देख रहा हूँ ख़्वाब अभी से आने वाले कल की जानम
इन्शा अल्लाह इक दिन तुमको पलकों पर बैठा लूंगा मैं

;4:
कुरबत ने कुछ तो दिल में उम्मीद है जगाई
आए थे ख़्वाब रंगी ,ना नींद आज आई
जाने किधर को लेकर जाएगा दिल दिवाना
यह कैसी तिश्नगी है ये कैसी आशनाई


-आनन्द.पाठक-

मुक्तक 05

  :1;

चन्द लमहे भी क्या हसीं होते

आप मेरे जो हमनशीं होते

ज़िंदगी और भी संवर जाती

आप दिल के अगर मकीं होते


:2:

दीप उम्मीद का इक जलाए रखा

उनके स्वागत में पलकें बिछाए रखा

वो न आएँ  न आएँ भले उम्र भर

इक मिलन का भरम था बनाए रखा


:3:

यह चमन है हमारा, तुम्हारा भी है

ख़ून देकर सभी ने सँवारा भी है

कौन है जो हवा में ज़ह्र घोलता

कौन है जो दुश्मन का प्यारा भी है


;4:

बात क्या थी जो मुझसे छुपाई गई

जो सर-ए-बज़्म सबको बताई गई

कुछ भी कहने की मुझको इजाज़त नहीं

सिर्फ़ मुझ पर ही बन्दिश लगाई गई


-आनन्द.पाठक-