शुक्रवार, 21 मार्च 2025

गीत 84

  चुनावी गीत 84[08]


रंग बदलते नेताओं को ,देख देख गिरगिट शरमाया।

फिर चुनाव का मौसम आया ।


पलटी मारी, उधर गया था, पलटी मारी इधर आ गया

’कुर्सी’ ही बस परम सत्य है, जग मिथ्या है' समझ आ गया'


देख गुलाटी कला ’आप’ की, मन ही मन बंदर मुस्काया।

फिर चुनाव का मौसम आया ।


वही तमाशा दल बदली का, दल बदले पर दिल ना बदला

बाँट रहे हैं मुफ़्त ’रेवड़ी’, सोच मगर है गँदला ,गँदला ।


वही  घोषणा पत्र पुराना, पढ़ पढ़ जनता को भरमाया ।

फिर चुनाव का मौसम आया ।


आजीवन बस खड़ा रहेगा, अन्तिम छोर खड़ा है ’बुधना’

हर दल वाले बोल गए हैं, - "तेरा भी घर होगा अपना "

जूठे नारों वादों से कब किसका पेट भला भर पाया।

फिर चुनाव का मौसम आया ।


-आनन्द.पाठक-


गीत 83

  


गीत 83 [07] : शरण में राम की आना---[भाग 2

कटॆ जब आस की डोरी, बिखर जाएँ सभी सपने
जीवन में हो कुछ पाना, शरण में राम की आना ।

जहाँ आदर्श की बातें, 
सनातन धर्म का प्रवचन
तुम्हारे सामने होगा-
प्रभु श्री राम का जीवन

स्वयं में राम को ढूँढो, विजय श्री प्राप्त होने तक
झलक श्री राम की पाना, शरण में राम की आना ।

वचन कैसे निभाते हैं,
कि क्या होती है मर्यादा
राजसी ठाठ को तज कर 
जिया जीवन सदा सादा ।

अगर कुछ सीखना तुमको कि जीने का तरीका क्या
स्वयं में राम दुहराना ,शरण में राम की आना ।

परीक्षा माँ सिया ने दी
प्रतीक्षा उर्मिला ने की
भरत ने राज आसन पर
प्रभू की पादुका रख दी ।

तपस्या त्याग क्या होती ,भरत सा आचरण करना।
समझ आए. समझ जाना, शरण में राम की आना

-आनन्द.पाठक-

गीत 82

  

गीत 82 [01] : सरस्वती वंदना


जयति जयति माँ वीणापाणी ,

मन झंकृत कर दे, माँ भारती वर दे !


तेरे द्वारे खड़ा अकिंचन. भक्ति भाव से है पुष्पित मन,

सुर ना जानू, राग न जानू और न जानू पूजन अर्चन !


कल्मष मन में घना अँधेरा. ज्योतिर्मय कर दे,

माँ भारती वर दे !


छन्द छन्द माँ तुझे समर्पित, राग ताल से हो अभिसिंचित

जब भी तेरे गीत सुनाऊँ , शब्द शब्द हो जाएँ हर्षित ।


अटक न जाए कहीं रागिनी, स्वर प्रवाह भर दे ।

माँ भारती वर दे !


’सत्यम शिवम सुन्दरम ’-लेखन,बन जाए जन-मन का दरपन

गूँगों की आवाज़ बने माँ, क़लम हमारी करे नव-सॄजन  ।


शक्ति स्वरूपा बने लेखनी, शक्ति पुंज भर दे ।

माँ भारती वर दे !


मैं अनपढ़ माँ, अग्यानी मन, हाथ जोड़ कर, करता आवाहन,

गीत ग़ज़ल के अक्षर अक्षर तेरे हैं माँ तुझको अर्पन !


चरण कमल में शीश झुकाऊँ, भक्ति प्रखर कर दे।

माँ भारती वर दे ! 


-आनन्द.पाठक-

इस वंदना को मेरे स्वर में सुनें







गीत 81

 


1222---1222---1222---1222
श्री रामलला की  प्रतिष्ठा [ 22 जनवरी ] के पावन अवसर पर--श्री राम लला के पावन चरणों मे 
 एक अकिंचन भेंट ------

एक गीत 81[06]

उदासी मन  पे जब छाए , अँधेरा फैलता जाए ,
तनिक भी तुम न घबराना. शरण में राम की आना।

करें जब राम का सुमिरन
कटे बंधन सभी ,प्यारे !
हृदय में ज्योति जग जाए
लगें सब लोग तब न्यारे ।

अकेला मन भटक जाए, समझ में कुछ नही आए,
सही जब राह हो पाना, शरण में राम की  आना ।

राम के नाम की महिमा,
सदा नल-नील ने जानी ,
कि तरने लग गए पत्थर
झुका सागर भी अभिमानी

अहम जब सर पे चढ़ जाए, सभी बौने नज़र आएँ
पड़े तुमको न पछताना, शरण में राम की आना ।

जगत इक जाल माया का,
फँसा रहता तू जीवन भर
कभी तो सोच ऎ प्राणी !
है करना पार भव सागर ।

जगत जब तुमको भरमाए, कि माया तुमको ललचाए
धरम को भूल मत जाना, शरण में राम की  आना ।

-आनन्द.पाठक-

गीत 80

  गीत 80 [05]: दीपावली पर एक गीत


ज्योति का पर्व है आज दीपावली

हर्ष-उल्लास से मिल मनाएँ सभी


’स्वागतम’  में खड़ी अल्पनाएँ मेरी

आप आएँ सभी मेरी मनुहार पर

एक दीपक की बस रोशनी है बहुत

लौट जाए अँधेरा स्वयं  हार कर

जिस गली से अँधेरा गया ही नहीं

उस गली में दिया मिल जलाएँ सभी


राह भटके न कोई बटोही कहीं

एक दीपक जला कर रखो राह में

ज़िंदगी के सफ़र में सभी हैं यहाँ 

                एक मंज़िल हो हासिल इसी चाह में

खिल उठे रोशनी घर के आँगन में जब

फिर मुँडेरों पे दीए सजाएँ  सभी ।


आग नफ़रत की नफ़रत से बुझती नहीं,

आज बारूद की ढेर पर हम खड़े ।

युद्ध कोई समस्या का हल तो नहीं,

व्यर्थ ही सब हैं अपने ’अहम’ पर अड़े ।

आदमी में बची आदमियत रहे ,

प्रेम की ज्योति दिल में जगाएँ सभी।


स्वर्ग से कम नहीं है हमारा वतन,

आँख कोई दिखा दे अभी दम नहीं ।

साथ देते हैं हम आख़िरी साँस तक,

बीच में छोड़ दें हम वो हमदम नहीं ।

देश अपना हमेशा चमकता रहे ,

दीपमाला से इसको सजाएँ सभी ।


-आनन्द.पाठक-


माहिया 110

माहिया 109

माहिया 108

माहिया 107

माहिया 106

  चंद माहिए 106/16

1;

होली का है मौसम 

छा जाती मस्ती

जब साथ रहे हमदम ।


2:

कान्हा खेलें होली

भाग रही बच कर

राधा रानी भोली ।


3:

खुशियॊ से भरी झोली

मिल कर खेलेंगे

हम रंग भरी होली


;4:

कुछ रंग गुलाल लिए

राह तेरी देखूँ

फूलों का थाल लिए ।


5

जब होली आती है 

फूल बहक जाते

डाली मुस्काती हैं


-आनन्द.पाठक-





माहिया 105

  चन्द माहिए 105/15 [ उस पार]

:1:

कलियाँ हैं जन्नत की

ख़ूशबू आती है

माली के मिहनत की ।

:2:

कुदरत का करिश्मा है 

कौन समझ पाया

उसकी क्या सीमा है ।

:3;

दर्या यह गहरा है

डूबा जो इसमें

फिर कब वो उबरा है!


माहिया 104

  क़िस्त 104 /14 [माही उस पार]


1

जब तुम न नज़र आए

लाख हसीं चेहरे

मुझको न कभी भाए


2

नफ़रत को हराना है

तो सबके दिल में

उलफ़त को जगाना है


3

बस्ती तो जलाते हो

क्या हासिल होता

यह क्यों न बताते हो?


4

गुलशन में महक कैसी?

तुम तो नही गुज़री

डाली में लचक कैसी?

5

माना कि अँधेरा है

धीरज रख प्यारे

होने को सवेरा है


-आनन्द.पाठक-


माहिया 103

  क़िस्त 103/13 [माही उस पार]


1

देखा जो कभी होता

ग़ौर से जब तुमको

मैं खुद में नहीं होता ।


2

ऎ दिल ! क्यॊं दीवाना

कब उसको देखा

पढ़ कर ही जिसे जाना ।


3

जो तेरे अन्दर है

देख ज़रा, पगले !

क़तरे में समन्दर है ।


4

भगवा कंठी माला

व्यर्थ दिखावा क्यों

जब मन तेरा काला ।


5

ऐसा भी आना क्या

"जल्दी  जाना है"

हर बार बहाना क्या ।


माहिया 102

  चन्द माहिए 102/12 [होली पर] [माही उस पार]


;1: 

रंगो के दिन आए

कलियाँ शरमाईं
भौरें जब मुस्काए

:2:

आई होली आई

आज अवध में भी

खेलें चारो भाई

:3:

हर दिल पर छाई है

होली की मस्ती

गोरी घबराई है

:4:

"कान्हा मत छेड़ मुझे"

राधा बोल रही

"हट दूर परे, पगले !"


:5:

होली के बहाने से

बाज न आएगा

तू रंग लगाने से ।


-आनन्द पाठक-


माहिया 101

  चन्द माहिए 101/11 : होली पर [माही उस पार]


:1:

होली में सनम मेरे 

थाम मुझे लेना

बहके जो कदम मेरे


:2:

घर घर में मने होली

हम भी खेलेंगे

आ मेरे हमजोली 

:3;

क्यों रंग लगाता है

दिल तो अपना है

क्यों दिल न मिलाता है?

:4:

क्यों प्रीत करे तन से

रंग लगा ऐसा

उतरे न कभी मन से ।

:5:

पूछे है अमराई

फागुन तो आया

गोरी क्यूँ नहीं आई ?


-आनन्द पाठक-



माहिया 100

   चन्द माहिए : क़िस्त  100/10 [माही उस पार]


:1:

क्या और सुनानी  है  

तेरी कहानी में 

मेरी भी कहानी है

:2:

जीवन का सफ़र बाक़ी

हाथ पकड़ चलना

मेरे जीवन साथी !

3

छुप कर भी गुजरेगी

कोई कली जब भी

खुशबू तो बिखरेगी

4

जुल्मों की कहानी है

जिंदा हो तो फिर

आवाज उठानी है

5

अल्हड़ सी जवानी पर

इतना मत इतरा

इस जिस्म ए फानी पर

-आनन्द पाठक-

माहिया 99

  चन्द माहिए 99/09] : प्राण प्रतिष्ठा पर [माही उस पार]


:1:

जन जन के दुलारे हैं

आज अवध में फिर 

प्रभु राम पधारे  हैं


:2:

झूमेंगे नाचेंगे

प्राण प्रतिष्ठा में

श्री राम विराजेंगे


:3:

सपना साकार हुआ

राम लला जी का

मंदिर तैयार हुआ


:4:

प्रभु राम की सब माया

उनकी किरपा से

अब यह शुभ दिन आया


:5:

गिन गिन कर काटे दिन

स्वर्ग से उतरेंगे

भगवान सभी इस दिन


:6:

मंदिर की इच्छा में

पाँच सदी तक थे

दो नैन प्रतीक्षा में ।


:7:

प्रभु प्रेम में हो विह्वल

शर्त मगर यह भी

मन भाव भी हो निश्छल


-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 180

  अनुभूतियाँ 180/67


717
मुझे ग़लत ही समझा सबने
कभी किसी ने दिया साथ क्या
तुमने भी गर समझा ऐसा
तो इसमे फिर नई बात क्या ।

718
साथ निभाने वाली बातें
मैं कब भूला, तुम ही भूली
याद दिला कर भी क्या होगा
तुम्हें नही जब करना पूरी ।

719
कौन तुम्हारे साथ खड़ा था
किसने बना रखी थी दूरी
उन्हे परखना, उन्हें समझना
तुमने समझा नही ज़रूरी

720
आँखों के सपनों की ख़ातिर
गिरते, उठते, थकते, चलते
और ज़िंदगी कट जाती है
सुख दुख के साए में पलते

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 179

  अनुभूतियाँ 179/66

713

सत्य कहाँ तक झुठलाओगे

छुपता नहीं, न दब पाएगा ।

ख़ुद को धोखा कब तक दोगे

झूठ कहाँ तक चल पाएगा ।


714

सुख दुख चलते साथ निरन्तर

जबतक जीवन एक सफ़र है

जितना उलझन मन के बाहर

अधिक कहीं मन के अंदर है।


715

वक़्त गुज़रने को गुज़रेगा

भला बुरा या चाहे जैसा

ज़ोर नहीं जो अगर तुम्हारा

ढलना होगा तुमको वैसा


716

क्या करना है तुमको सुन कर

कैसी गुज़र रही है मुझ पर

शायद तुमको खुशी न होगी
ज़िंदा रहता हूँ मर मर कर


-आनन्द.पाठक-


इसी अनुभूतियों कॊ आ0  विनोद कुमार उपाध्याय [ लखनऊ] के स्वर में यहाँ सुनें और आनन्द उठाएँ

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अनुभूतियाँ 178

 अनुभूतियाँ 178/65


709
हाथ मिलाना हाय! हलो! बस
दिल का दिल से  पर्दादारी
मन से मन ही नही मिला जो
बाक़ी तो बस दुनियादारी ।

710
व्यर्थ विवेचन क्या करना अब
चाकू कहाँ किधर रखना था 
अन्तिम परिणति नियति यही थी
खरबूजे को ही कटना  था ।

711
कण कण में सब देख रहे हैं
सत्ता का विस्तार तुम्हारा ।
ग्यानी-ध्यानी सोच रहे हैं
क्या होगा आकार तुम्हारा ।

712
रंग मंच पर अभिनय तबतक
जब तक पर्दा नहीं गिरा है
कर्म सभी के निर्धारित हैं
जिनको जितना ’रोल’ मिला है


-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 177

 अनुभूतिया 177/64


705
मेरी कुटिया पर ही केवल
सदा नजर रखती बिजली है
तडक भडक बस करती रहती
कभी नहीं गिरती पगली है ।

706
कल तक थे जो शिखर बिन्दु पर
गिरे पड़े है , खेला यह भी
सिंहासन पर धूल जमी है
एक तमाशा, मेला यह भी

707
महफ़िल सजी रहा करती थी
बजती थी नौबत-शहनाई
रंग महल वीरान हुए अब
ईंट ईंट दे रही गवाही ।

708
लोग तुम्हे तब तक पूछेंगे
जब तक उनको तुमसे मतलब
बाद तुम्हे वो छोड़ चलेंगे
ना जाने किस मोड़ कहाँ कब

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 176

  अनुभूतियाँ 176/63


701

जब जब छोड. गई तुम मुझको,

नदी प्यार की फिर भी रहती ।

ऊपर ऊपर भले दिखे ना,

भीतर भीतर बहती रहती ।


702

तुम क्या जानो, दिल तेरे बिन

क्या क्या नहीं सहा करता है

नियति मान कर चुप रहता है

कुछ भी नहीं कहा करता है ।


703

राह देखती रहती निशदिन

वही प्रतीक्षारत हैं आँखें

आओगे तुम इक दिन वापस

लटकी अँटकी रहती साँसें


704

मन की सूनी कुटिया मे जब

और नहीं कोई रहता है

तब तेरी यादें रहती हैं

मन जिनसे बातें करता है


-आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 175

  अनुभूतियाँ 175/62


697

होली आई ,तुम भी आओ,

खेलेंगे हम मिल कर होली ।

सात रंग से रँगना, प्रियतम !

प्रीति प्रणय हो या रंगोली ।


698

मार न कान्हा यूँ पिचकारी,

एक रंग मे रँगी चुनरिया ।

चाहे जितना रंग लगा  दे,

चढ़े न दूजो रंग, सँवरिया !


699

होली का यह पर्व खुशी का

प्रेम रंग से तुम रँग देना ।

लाल गुलाल लगा कर सबको,

अपनी बाँहों में भर लेना ।


700

अवधपुरी में सीता खेलें

वृंदावन में राधा रानी । 

रंग लगा कर गले लगाना

होली की यह रीति पुरानी ।


-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 174

  अनुभूतियाँ 174/61


693

शायद मैने ही देरी की

अपनी बात बताने में कुछ

बरसोंं लग जाएंगे शायद

दिल की चाह जताने में कुछ।


694

जब जब दूर गई तू मुझसे

कितने गीत रचे यादों में

ढूँढा करता हूँ सच्चाई

तेरे उन झूठे वादों में ।  


695

दोष किसी को क्या देता मैं

सब अपने कर्मों का फल है

सबको मिलता है उतना ही

 जिसका जितना भाग्य प्रबल है।


696

प्रेम चुनरिया मैने रँग दी,

बाक़ी जो है तुम भर देना।

आजीवन बस रँगी रहूँ मैं,

प्रीति अमर मेरी कर देना ।


-आनन्द पाठक-






अनुभूतियाँ 173

 689

साथ अगर ना तुम होते तो
कैसे कठिन सफर यह कटता
प्राण वायु ही जब ना हो तो
इस तन का फिर क्या मैं करता

690
नदिया की यह चंचल लहरें
साहिल से क्या क्या बतियाती
चाहे हों पथरीली राहें -
गीत मिलन के गाती जाती

691
मै कैसे यह खुद बतलाता
पूछा तुमने, बात बता दी
बदन तुम्हारा संग़़-ए-मरमर
ओठ गुलाबी, नैन शराबी

692
मन के अंदर द्वंद बहुत है
ग्रंथ कहे कुछ मन कुछ कहता
तेरे घर की राह अनेको
ज्ञानी भी उलझन मे रहता 

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 172

  अनुभूतियाँ 172/59

685

बंजारों-सा यह जीवन है

साथ चला करती है माया

साथ साँस जैसे  चलती है

जहाँ जहाँ चलती है काया


686

समय कहाँ रुकता है, प्यारे !

धीरे धीरे चलता रहता ।

अपने कर्मों का जो फ़ल हो

इसी जनम में मिलता रहता ।


687

प्यास मिलन की क्या होती है

भला पूछना क्या आक़िल से 

वक़्त मिले तो कभी पूछना 

किसी तड़पते प्यासे दिल से । 


688

मन का जब दरपन ही धुँधला

खुद को कैसे पहचानोगे ?

राह ग़लत क्या, राह सही क्या

आजीवन कैसे जानोगे ?


-आनन्द.पाठ्क-

[ आक़िल = अक्ल वाला ]


अनुभूतियाँ 171

 अनुभूतियां~ 171/58

681

जीवन चलता रहता अविरल

कहीं कठिन पथ, कहीं सरल है

जीवन इक अनबूझ पहेली

कभी शान्त मन ,कभी विकल है ।

682

सोन चिरैया रोज़ सुनाती

अपनी बीती नई कहानी

कभी सुनाती खुल कर हँस कर

कभी आँख में भर कर पानी ।


683

जब से तुम वापस लौटी हो

लौटी साथ बहारें भी हैं ।

चाँद गगन में अब हँसता है

साथ हँस रहे तारे भी हैं ।


684

अगर समझ में कमी रही तो

कब तक रिश्ते बने रहेंगे

स्वार्थ अगर मिल जाए इसमे

कब तक रिश्ते बचे रहेंगे ।


-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 170

 अनुभूतियाँ 170/57


677
तुम क्या जानो विरह वेदना
जिसने देखी नहीं जुदाई
होठो पर हो हास भले ही
आँख विरह मे तो भर आई

678
बहुत दिनों के बाद मिली हो
लौट के आया है यह शुभ दिन
भला बुरा जो भी हो कहना
कह लेना फिर और किसी दिन

679
छोड़ो जाने दो, रहने दो
वही दिखावा, वही बहाना
अपने ही दिल की बस सुनना
मेरे दिल को कब पहचाना 

680
तुम गमलों में पली हुई हो
तुम्हे सदा मिलती है छाया
नंगे पाँव चला हूँ अबतक
मैं तपते सहरा से आया ।

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 169

  अनुभूतियाँ 169/56


673

ऐसे भी कुछ लोग मिलेंगे

ख़ुद को ख़ुदा समझते रहते

आँखों पर हैं पट्टी बाँधे

अँधियारों में चलते रहते ।


674

दिल जो कहता, कह लेने दो

कहने से मत रोको साथी !

दीपक अभी जला रहने दो

रात अभी ढलने को बाक़ी


675

माना राह बहुत लम्बी है

हमको तो बस चलना साथी

जो रस्मे हों राह रोकती

मिल कर उन्हे बदलना साथी


676

नीड बनाना कितना मुश्किल

उससे मुश्किल उसे बचाना

साध रही है दुनिया कब से

ना जाने कब लगे निशाना ।

-आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 168

  अनुभूतियाँ 168/55


669

मुक्त हंसी  जब हँसती हो तुम

हँस उठता है उपवन मधुवन

कोयल भी गाने लगती है 

और हवाएँ छेड़े सरगम ।


670

मछली जाल बचा कर निकले

लेकिन कब तक बच पाती है

प्यास अगर दिल में जग जाए

स्वयं जाल में  फँस जाती है ।


671

अवसरवादी लोग जहाँ हों

ढूँढा करते रहते अवसर

स्वार्थ प्रबल उनके हो जाते

धोखा देते रह्ते  अकसर


672

कितनी बार लड़े, झगड़े हम

रूठे और मनाए भी हैं ।

विरह वेदना में रोए तो

गीत खुशी के गाए भी हैं।


-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 167

  अनुभूतियाँ 167/54

665

लोग समझते रहे हमेशा

अपनी अपनी ही नज़रों से

तौल रहे है प्रेम हमारा

काम-वासना के पलड़ों से।


666

नहीं भुलाने वाली बातें

तुम्ही बता दो कैसे भूलें ?

माना हाथ हमारे बौने

चाह मगर थी, तुमको छू लें।


667

ऊषा की तुम प्रथम किरण बन

आती हो जब द्वार हमारे ,

खुशबू से भर जाता आँगन

खिल जाते हैं सपने सारे ।


668

आशा और निराशा के संग

 तुमने जितना पिया अँधेरा

एक अटल विश्वास प्रबल था

तब जा कर यह हुआ सवेरा ।


-आनन्द.पाठक--




अनुभूतियाँ 166

  अनुभूतियां 166/53


661
नदी किनारे गाता कोई
गीत विरह का किसे सुनाता
चला गया जो कब आता है
जान रहा फिर किसे बुलाता ।

662
सबकी अपनी अपनी दुनिया
सब अपने में ही खोए हैं
काटेंगे कल फ़सल वही सब
अबतक जिसने जो बोए हैं

663
जलता है जब गुलशन मेरा
*कोई हँसता है मन ही मन*
जितना समझाता हूँ दिल को
उतनी बढ़ती जाती उलझन

664
मत पूछो हमराही  मेरे
कैसे थे या क्या थे वो दिन
 राजमहल थी कुटिया मेरी
आज खंडहर है उसके बिन 

-आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 165

  अनुभूतियाँ 165/52

657

राम-नाम का एक सहारा
जब जीवन में मिल जाता है
मन अपना पावन हो जाता
भक्ति-भाव भी खिल जाता है ।


658
अतुलित छवि है राम लला की
मधुर मधुर मुसकान अधर पर
कमल नयन है बदन कमल सा
बोल रहा हो मानो पत्थर ।

659
राम नाम की महिमा जग में
कौन नहीं जो जान रहा है ।
पत्थर पत्थर तक तर जाते
हर कोई यह मान रहा है ।


660
राम लला की पावन प्रतिमा
प्राण प्रतिष्ठा वाला शुभ दिन
इस अवसर के साक्षी बनने
काटी कितनी सदियाँ गिन गिन।

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 164

  अनुभूतियां 164/51



653
काल-खंड का पहिया चलता
सुख दुख का क्रम बारम्बारा
कभी उच्च्चतम, कभी निम्नतम
इसी बीच में जीवन सारा ।


654
सरदी हो चाहे गरमी हो
आजीवन चलना पड़ता है
चलते रहना ही जीवन है
रुकना जीवन की जड़ता है ।

655
धरती के अन्तस की पीड़ा
बादल क्या समझे क्या जाने
कहाँ बरसना, नहीं बरसना
बादल यह सब कब पहचाने ।

656
रात अँधेरी नीरव निर्जन
और राह उस पर दुर्गम है
ज्योति-पुंज हो अगर ग्यान का
सफ़र सुहाना क़दम क़दम है ।

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 163

  अनुभूतियाँ 163/50


649

कभी प्रेम का ज्वार उठा है

कभी दर्द के बादल छाए ।

जीवन भर मैने जीवन को

मिलन-विरह के गीत सुनाए ।


650

चाहे जितना अँधियारा हो

एक रोशनी मन के अन्दर

सतत जला करती रहती है

राह दिखाती रहती अकसर


651

तीर कमान लिए हाथों में

काल, व्याध बन बैठा छुप कर

इक दिन तो जद में आना है

कब तक रह पाओगे बच कर।


652

साँस साँस पर कर्ज उसी का

वही साँस में  घुला हुआ है ।

 मन रहता आभारी उसका

सतगुण से जो धुला हुआ है ।


-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 162

 अनुभूति 162/49


645
नैतिकता की बातें सुन सुन
शेर हुआ क्या शाकाहारी ?
कल तक 'रावण' के चोले में
आज बने क्या अवध बिहारी ?

646
पग पग पर हैं गति अवरोध
ठोकर खा खा कर है चलना
जीवन इतना सरल नहीं है
गिरना उठना, स्वयं सँभलना । 

647
सोन चिरैया गाती जाए
अपनी धुन अपनी मस्ती में
हँस कर जीना,खुल कर हँसना
जितना दिन रहना बस्ती में ।

648
सबका अपना जीवन दर्शन
सबकी अपनी राम कहानी
अन्त सभी का एक समाना
बाक़ी चीज़े आनी-जानी ।

-आनन्द.पाठक-





अनुभूतियाँ 161

  अनुभूति 161/48

641

सुन कर मेरी प्रेम-कहानी

साथी ! तुमको क्या करना है?

कर्ज किसी का मेरे सर पर

आजीवन जिसको भरना है।


642

कसमे वादे प्यार वफ़ा सब

जब तुमने ही भुला दिया है

मैने भी अपनी चाहत को

थपकी दे दे सुला दिया है ।


643

जो भी करना खुल कर करना

द्वंद पाल कर क्या करना है 

दुनिया की तो नज़रें टेढ़ी

दुनिया से अब क्या करना है ।


644

सत्य नहीं जब सुनना तुमको

और तुम्हे क्या समझाऊँ मैं

झूठ तुम्हे सब लगता है तो

चोट लगी क्या दिखलाऊँ मैं।

-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 160

  अनुभूति 160/47

637

तर्क नहीं जब, नहीं दलीलें

शोर शराबा ही शामिल हो

क्यों उलझे हो उसी बहस में

अन्तहीन जो लाहासिल हो । 


638

तुम हो ख़ुद में  एक पहेली

आजीवन हल कर ना पाया

पर्दे के अन्दर पर्दा है --

राज़ यही कुछ समझ न आया।


639

सूरज कब श्रीहीन हुआ है

जन-मानस को जगा दिया है

बादल को यह भरम हुआ है

सूरज उसने छुपा दिया है ।


640

वही अनर्गल बातें फिर से

वही तमाशा फिर दुहराना  

जिन बातों का अर्थ न कोई

उन बातों में फिर क्यों आना ।

 

-आनद.पाठक-



लाहासिल = जिसका कोई हासिल न हो, अनिर्णित

अनुभूतियाँ 159

  

अनुभूति159/46 


633

नहीं समझना है जब तुमको

कौन तुम्हें फिर क्या समझाए

इतनी जिद भी ठीक नहीं है

घड़ी मिलन की बीती जाए ।


634

सबके अपने जीवन क्रम है

सबकी अपनी मजबूरी है

मन तो वैसे साथ साथ है

तन से तन की ही दूरी है ।


635

समझौते करने पड़ते हैं

जीवन की गति से, प्रवाह में

कभी ठहरना, गिर गिर जाना

मंज़िल पाने की निबाह में


636

एक तुम्ही तो नहीं अकेली

ग़म का बोझ लिए चलती हो

हर कोई ग़मजदा यहाँ है

ऊपर से दुनिया छलती है ।


-आनन्द.पाठक-






अनुभूतियाँ 158

   अनुभूति 158/45


629

भला बुरा या जैसा भी हूँ

जो बाहर से, सो अन्दर से

शायद और निखर जाऊँ मै

पारस परस तुम्हारे कर से ।


630

विरह वेदना अगर न होती

तड़प नहीं जो होती इसमे

पता कहाँ फिर चलता कैसे

प्रेम भावना कितना किसमे।


631

हम दोनों की राह अलग अब

लेकिन मंज़िल एक हमारी

प्रेम अगन ना बुझने पाए

चाहे जो हो विपदा भारी ।


632

दोषारोपण क्या करना अब

किसने जोड़ा, किसने छोड़ा

टूट गई जब प्रेम की डोरी

व्यर्थ बहस क्या किसने तोड़ा


-आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 157

  अनुभूति 157/44




625
मुझे मतलबी समझा तुमने
सोच तुम्हारी, मैं क्या बोलूँ
खोल चुका दिल पूरा अपना
और बताओ कितना खोलूँ


626
कमी सभी में कुछ ना कुछ तो
कौन यहाँ सम्पूर्ण स्वयं में ।
सत्य मान कर जीते रहना
आजीवन बस एक भरम में ।


627
जो होना है सो होगा ही
व्यर्थ बहस है व्यर्थ सोचना
पाप-पुण्य की बात अलग है
कर्मों का फ़ल यहीं भोगना  ।


628
ग़लत सदा ही समझा तुमने 
देव नहीं में , नहीं फ़रिश्ता
जैसी तुम हो, वैसा मैं भी
दिल से दिल का केवल रिश्ता


-आनन्द.पाठक--
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अनुभूतियाँ 156

 अनुभूतियाँ 156/43


 621
बंद करो यह प्रवचन अपना
इधर उधर की बात सुना कर
ख़ुद को भगवन बता रहे हो
भोली जनता को भरमा कर

622
कर्म तुम्हारा ख़ुद बोलेगा
चाहे जितनी हवा बाँध लो
वक़्त करेगा सही फ़ैसला
जिसको जितना जहाँ साध लो।

623
जीवन के अनुभूति क्रम में
परत, परत दर परत व्यथाएँ
आँखों में आँसू बन छलकी
बूँद बूँद में कई कथाएँ ।

624
व्यर्थ तुम्हारी अपनी जिद थी
शर्त नही होती उलफ़त में
कितनी भोली नादाँ हो तुम
इश्क़ नही होता ग़फ़लत में ।

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 155

 अनुभूतिया 155/42


617

सात जनम की बातें करते

सुनते रहते वचन धरम में  

एक जनम ही निभ जाए तो

बहुत बड़ी है बात स्वयं में ।


618

बंद अगर आँखें कर लोगी

फिर कैसे दुनिया देखोगी

कौन तुम्हारा, कौन पराया

लोगों को कैसे समझोगी ।


619

सरल नही है सच पर टिकना

पग पग पर है फिसलन काई 

मिल कर टाँग खीचने वाले 

झूठों के जो है अनुयायी ।


620

यह दुनिया है, बिना सुने ही

ठहरा देगी तुमको मजरिम

लाख सफाई देते रहना

वही फैसला उसका अंतिम


-आनन्द पाठक-


अनुभूतियाँ 154

 अनुभूति 154/41



613

उदगम से लेकर आख़िर तक 

नदिया करती कलकल छलछल ।

अन्तर्मन में प्यास मिलन की

लेकर बहती रहती अविरल ।



614

सोन चिरैया गाती रह्ती 

किसे सुनाती रहती अकसर

ना जाने कब उड़ जाएगी

तन का पिंजरा किस दिन तज कर



615

सभी बँधे अपने कर्मों से

ॠषिवर, मुनिवर, साधू जोगी

एक बिन्दु पर मिलना सबको

कामी, क्रोधी, लोभी, भोगी ।



616

अरसा बीते, पूछा तुमने-

"कहाँ किधर हो? कैसे हो जी?"

जैसा छोड़ गई थी उस दिन

वैसा ही हूँ , अच्छा हूँ जी ।

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 153

 अनुभूति 153/40


609

पहले वाली बात कहाँ अब

मौसम बदला तुम भी बदली

वो भी दिन क्या दिन थे अपने

मैं था ’पगला" तुम थी ’पगली

 

610

जिन बातों से चोट लगी हो

मन में उनको, फिर लाना क्यों

जख्म अगर थक कर सोए हो

फिर उनको व्यर्थ जगाना क्यों

 

611

जब से दूर गए हो प्रियतम

साथ गईं मेरी साँसे भी

देख रही हैं सूनी राहें

और प्रतीक्षारत आँखे भी


612

समझाने का मतलब क्या फिर

बात नहीं जब तुमने मानी

क्या कहता मैं जब तुमने ही

राह अलग चलने की ठानी

 

-आनन्द.पाठक

 


अनुभूतियाँ 152

 अनुभूति 152/39


605
काट दिए जब दिन विरहा के
मत पूछो कैसे काटे हम
सारी ख़ुशियाँ एक तरफ़ थी
जीवन टुकड़ों में बाँटे हम
 
606
 हार गए हों जो जीवन से
टूट गईं जिनकी आशाएँ
एक सहारा देना उनको
मुमकिन है फिर से जी जाएँ

607
लाख मना करता है ज़ाहिद
कब माना करता है यह दिल 
मयखाने से बच कर चलना
कितना होता है यह मुशकिल 
 
608
नदिया की अपनी मर्यादा
तट के बन्धन में रहती है
अन्तर्मन में पीड़ा रखती
दुनिया से कब कुछ कहती है
 

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 151

 


अनुभूतियाँ 151/ 38


601
आसमान के कितने ग़म है
धरती के भी क्या कुछ कम हैं?
कौन देखता इक दूजे की
आँखे किसकी कितनी नम हैं ।
 
 
602
एक समय ऐसा भी आया
जीवन में अंगारे बरसे 
जलधारों की बात कहाँ थी
बादल की छाया को तरसे 
 
603
एक बात को हर मौके पर
घुमा-फिरा कर वही कहेगा।
ग़लत दलीलें दे दे कर वह
ग़लत बात को सही कहेगा 
 
 
604
जब अपने मन का ही  करना
फिर क्या तुमसे कुछ भी कहना 
जिसमें भी हो ख़ुशी तुम्हारी
काम वही तुम करती रहना 
 
 
-आनन्द पाठक-

गुरुवार, 20 मार्च 2025

अनुभूतियाँ 150

  

क़िस्त 150/37

 

597

बहुत दिनों के बाद मिली हो

आओ,  बैठॊ पास हमारे -

यह मत पूछो कैसे काटे

विरहा मेंदिन के अँधियारे ।

 

598

मन के अन्दर ज्योति प्रेम की

राह दिखाती रही उम्र भर

जिसे छुपाए रख्खा मैने

पीड़ा गाती रही उम्र भर

 

599

साथ तुम्हारा ही संबल था

जिससे मिला सहारा  मुझको

साँस साँस में तुम ना घुलती

मिलता कहाँ किनारा मुझको

 

600

सदियों की तारीख़ भला मै

लम्हों में बतलाऊं कैसे ?

जीवन भर की राम-कहानी

पल दो पल में गाऊँ कैसे ?


-आनन्द.पाठक-

 

अनुभूतियाँ 149

 अनुभूतियाँ 149/36


593

एक किसी के जाने भर से

दुनिया ख़त्म नहीं हो जाती

चाह अगर है जीने की तो

राह नई खुद राह दिखाती

 

594

कहाँ गई वो ख़ुशी तुम्हारी

कहाँ गया अब वो अल्हड़पन

इस बासंती मौसम में भी

दुखी दुखी सी क्यों रहती जानम

 

595

कब तक मौन रहोगी यूँ ही

कुछ तो अन्तर्मन की बोलो

अन्दर अन्दर क्यों घुलती हो

कुछ तो मन की गाँठें खोलो

 

596

 हर बार छला दिल ने मुझको

हर बार उसी की सुनता हूँ

क्या होता हैं सपनों का सच

मालूम,  मगर मैं बुनता हूँ


 


अनुभूतियाँ 148

 अनुभूतियाँ 148/35

589

सदा बसें  हिरदय में मेरे

राम रमैया सीता मैया

अंजनि पुत्र केसरी नंदन

साथ बिराजै लछमन भैया

 

 

590

हो जाए जब सोच तुम्हारी

राग द्वेष मद मोह से मैली

राम कथा में सब पाओगे

जीवन के जीने की शैली 

 

:591

एक बार प्रभु ऐसा कर दो

अन्तर्मन में ज्योति जगा दो

काम क्रोध मद मोह  तमिस्रा

मन की माया दूर भगा दो 

 

592

इस अज्ञानीइस अनपढ़ पर

कृपा करो हे अवध बिहारी 

भक्ति भाव मन मे जग जाए

कट जाए सब संकट भारी


-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 147

 अनुभूतियाँ 147/34


585
उद्यम रत हैं जो दुनिया में
उन्हें भला अवकाश कहाँ है ।
उड़ने पर जब आ जाएँ तो
एक नया आकाश वहाँ है ।

586
नई चेतना, नई प्रेरणा ,
हिम्मत हो, कल्पना नई हो ,
आसमान ख़ुद झुक जाएगा
पंख नया, भावना नई हो ।

587
क्या क्या नहीं सपन देखे थे
 जीवन की मधु अमराई में ।
जाने किस से बातें करता
टूटा दिल अब तनहाई में ।

588
इतना साथ निभाया तुमने
जीवन में, यह कम तो नहीं है
बहुत बहुत आभार तुम्हारा
देखो, आंखें नम तो नहीं है ।

-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 146

  अनुभूतियाँ 146/33


581

जब अपने मन का ही  करना

फिर क्या तुमसे कुछ भी कहना ।

जिसमें भी हो ख़ुशी तुम्हारी

काम वही तुम करती रहना ।


582

अपने अंदर नई चेतना

किरणों का भंडार सजाए ।

व्यर्थ इन्हें क्या ढोते रहना ,

अगर समय पर काम न आए।


583

सूरज डूब गया हो पूरा

ऐसी बात नहीं है साथी ।

उठॊ चलो, प्रस्थान करो तुम

अभी रोशनी है कुछ बाक़ी ।


584

सफ़र हमारा नहीं रुकेगा,

जब तक मन में आस रहेगी ।

जब तक मंज़िल हासिल ना हो

इन अधरों  पर प्यास रहेगी ।


-आनन्द. पाठक-


अनुभूतियाँ 145

  अनुभूतियाँ 145/32

577

एक समय ऐसा भी आया
जीवन में अंगारे बरसे ।
जलधारों की बात कहाँ थी
बादल की छाया को तरसे ।

578
एक बात को हर मौके पर
घुमा-फिरा कर वही कहेगा।
ग़लत दलीलें दे दे कर वह
ग़लत बात को सही कहेगा ।

579
सीदी राह नहीं चलना है
जाने कौन सिखाता उसको।
"राम-कथा" में "शकुनि मामा"
जाने कौन पढ़ाता उसको ।

580
अहम, अना, मद, झूठ, दिखावा
भरम पाल कर वह जीता है ।
बाहर से वह भले छुपा ले
भीतर से रीता रीता  है ।

-आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 144

 अनुभूतियाँ 144/31 

573

अंगारों पर चला किए हैं
मैं क्या जानू पथ फूलों का ।
कुछ तो कर्ज रहा है मुझ पर
राह रोकते उन शूलों का ।

574
व्यर्थ बात में सदा तुम्हारा
मन रहता है उलझा उलझा
अन्तर्मन से कभी पूछना 
तुमने नहीं जरूरी  समझा

575
छोड़ो अब अंगार उगलना
कुछ तो मीठी बातें कर लो
कल हम दोनों कहाँ रहेंगे
मन में कुछ खुशियाँ तो भर लो।

576
सतत साधना व्यर्थ न जाती
गले लगा लेते जो , प्रियतम !
जनम सफ़ल हो जाता मेरा
अपना अगर बना लो, प्रियतम !

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 143

 

अनुभूतियाँ 143/30

569
मेरी शराफत मेरी लताफत 
मेरी कमजोरी तो नहीं  है
सही  समझना मुझको वैसे
तेरी मजबूरी तो नही है ।

570
तुमने मना किया है मुझको
" कोई ग़ज़ल कहूँ ना तुम पर"
मुझसे ना ये  हो पाएगा 
करूँ अनसुना मन की सुन कर । 

571
लेना-देना क्या है तुमसे
प्रेम-प्रीत का बस वंदन है
एक अलौकिक एक अलक्षित
जनम जनम का यह बंधन है ।

572
सदियों से है रीति चलन मे
प्यार मुहब्बत जग जाने है 
तुम न समझ पाओगी क्या है
मन मेरा बस पहचाने है ।

-आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 142

 अनुभूतियाँ  142/29

565

रिश्ते खत्म नहीं होते यह

दो दिन की है यह बात नहीं

द्शकों से इसे सँभाला है
पल दो पल के जज़्बात नहीं

566
सब कस्मे, वादे एक तरफ़
कुछ सख़्त मराहिल एक तरफ़
लहरों से कश्ती जूझ रही
ख़ामोश है साहिल एक तरफ़ । 


567
मेरे बारे में जो  समझा 
अच्छा सोचा, दूषित समझा
यह सोच सहज स्वीकार मुझे
तुमने मुझको कलुषित समझा ।

568
कुछ बातें ऐसी भी क्या थीं
जो मन मे ही रख्खा तुमने
खुल कर तुम कह सकती थी
तुमको न कभी रोका हमने 

-आनन्द पाठक-


अनुभूतियाँ 141

 

अनुभूतियाँ 141/28

561
 रोज यहाँ हैं जीना मरना
सबको मिलती पहचान नही
क्या तुम को भी लगता ऐसा
जीना कोई आसान नहीं ? 

562
अफसाने हस्ती के फैले
खुशियों से लेकर मातम तक
कुछ ख्वाब छुपा कर बैठे थे
जाहिर न किए आखिर दम तक

563
मतलब की इस दुनिया में
रिश्तों का कोई अर्थ नहीं 
सदभाव अगर हो  दिल में तो
लगता है जैसे स्वर्ग वहीं 

564
जाना था जिसको चला गया
रोके से भला रुकता भी क्या
मुड़ कर न मुझे देखा उसने
मैं आँखे नम करता भी क्या ।

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 140

 अनुभूतियाँ 140/27


 557
ना ही कोई अपना होता
ना ही कोई यहाँ पराया
यह तो है व्यवहार आप का
किसको कितना कैसा भाया ।

558
फिर सावन के दिन आयो है
उमड़ घुमड़ बदरा गरजै है ।
तड़क भड़क कर चमकै बिजुरी 
गोरी का  जियरा धड़कै है ।

559
जिसको देखो वही दुखी है
पैर रखे चादर से आगे ।
दुनिया को मुठ्ठी में करने,
बस माया के पीछे भागे ।

560
 तुम्हे सहारा  क्या देंगे वह
बेसाखी पर टिके हुए जो
क्यों उनसे हो आस लगाए 
सुविधाओं पर बिके हुए जो

-आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 139

  अनुभूतियाँ  139 /26


553

" जब तक अन्तिम साँस रहेगी
सदा चलूँगी छाया बन कर "
मुँहदेखी थी या वह सच था
सोचा करता हूँ  मैं अकसर ।

554

इधर खड़े या उधर खड़े हो
किधर खडे हो साफ बताओ
हवा जिधर की जैसी देखी
पीठ उधर ही मत कर जाओ

555
आना ही जब नहीं तुम्हें था
फिर क्यो झूटी कसमें खाई?
सुनना ही जब नहीं तुम्हें कुछ
क्या कहती मेरी तनहाई 

556

हार जीत की बात न होती
इश्क़ इबादत. प्रेम समर्पण ।
कैसे साफ़ नज़र छवि आए
मन का हो जब धुँधला दर्पण ।


-आनन्द.पाठक-


अनुभूतियाँ 138

 अनुभूतियाँ 138/25


549

इन्क़िलाब करने निकले थे

लाने को थे नई निज़ामत
सीधे जा पहुँचे तिहाड़ मे 
बैठ करेंगे वहीं  सियासत ।

550
लिए हाथ में काठ की हांडी 
कितनी बार चढ़ाओगे तुम
इसकी टोपी उसके सर पर
कबतक रखते जाओगे तुम ?

551
झूठ बोलने की सीमा क्या
उसको तो मालूम नहीं है ।
जितना भोला चेहरा दिखता
उतना वह मासूम नहीं है ।

552
कभी आप को देख रहा हूँ
कभी देखता हूँ अपने को
क्या न उमीदें रखीं आप से
जोड़ रहा टूटे सपने को ।

- आनन्द पाठक-

अनुभूतियाँ 137

 अनुभूतियाँ 137/24


545
रहने दो ये मीठी बातें
झूठ दिखावा झूठे वादे
क्या मै समझ नहीं सकता हूँ
क्या घातें , क्या नेक इरादे

546
हाल यही जो अगर रहा तो
छूटेंगे सब संगी साथी ।
तुम्ही अकेले करती रहना
सुबह-शाम की दीया-बाती ।

547
परछाई तो परछाई है
देख सकूँ पर हाथ न आए
एक भरम है जग मिथ्या है
मगर समझ में बात न आए ।

548
मन उचटा उचटा रहता है
जाने क्यों ? -यह समझ न पाऊँ
जिसकी सुधियों में खोया हूँ
कैसे मैं उसको बतलाऊँ

-आनन्द.पाठक-



ग़ज़ल 440

ग़ज़ल 439

ग़ज़ल 438

ग़ज़ल 437

ग़ज़ल 436

ग़ज़ल 435

ग़ज़ल 434

ग़ज़ल 433

ग़ज़ल 432

ग़ज़ल 431

ग़ज़ल 430

ग़ज़ल 429

ग़ज़ल 428

ग़ज़ल 427

ग़ज़ल 426

ग़ज़ल 425

ग़ज़ल 424

ग़ज़ल 423

ग़ज़ल 422

ग़ज़ल 421

ग़ज़ल 420

  ग़ज़ल 420 [ 69 फ़]

1222---1222---1222---122


मिटा दोगी अगर मेरी मुहब्बत की निशानी

हवाओं में रहेगी गूँजती मेरी कहानी ।


कभी तनहाइयों में जब मुझे सोचा करोगी ,

नहीं तुम भूल पाओगी मेरी यादें पुरानी ।


वो दर्या का किनारा,चाँदनी रातों का मंज़र

मुझे सब याद आएँगी, तेरी बातें सुहानी ।


भँवर में डूबती कश्ती किसी की तू ने देखी ,

न भूला हूँ तेरा डरना, न अश्क़-ए- नागहानी  ।


 अरे! अफ़सोस क्या करना, मुहब्बत की ये कश्ती

किसी की पार लग जानी , किसी की डूब जानी ।


भले मानो न मानो, इश्क़ तुहफा है ख़ुदा का

हसीं आग़ाज़ से अंजाम तक  है जिंदगानी ।


मुसाफिर इश्क़ का है वह, न उसको ख़ौफ़ कोई

बलाएँ हो ज़मीनी या बला-ए-आसमानी ।


तुम्हें लगता था ’आनन’ वह तुम्हारी ही रहेगी

ग़रज़ की है यहाँ  दुनिया, सभी बातें जबानी ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 419

  

ग़ज़ल 419[ 68 फ़]

1222---1222---1222


नहीं वह राज़ से पर्दा उठाता है ।

हमेशा ग़ैब से दुनिया चलाता है।


अक़ीदा साबित-ओ-सालिम कि झूठा है ?

यही हर मोड़ पर वह आजमाता है ।


नज़र आता नहीं लेकिन कहीं तो है

इशारों में मुझे कोई बुलाता है ।


उतर जाना है कश्ती ले के दरिया में ,

भरोसा है तो फिर क्यों ख़ौफ़ खाना है ।


चिराग़ों को भले तुम क़ैद कर लोगे ,

उजालों को न कोई रोक पाता है ।


हुनर होगा तुम्हारा ख़ास जो कोई

ज़माने में नुमायाँ हो ही जाता है ।


ज़माना जो भी समझे इश्क़ को’ ’आनन’

निभाना पर इसे सबको न आता है ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 418

  ग़ज़ल 418[67-फ़]

2122---1212---22

जब कहीं तेरी रहगुज़र आई ।

याद तेरी ही रात भर आई ।


एक लम्हा तुम्हे था क्या देखा

बाद ख़ुद की न कुछ ख़बर आई ।


छोड़ कर जो गई किनारे को

लौट कर फिर न वो लहर  आई ।


तुमको देखा तो यूँ लगा ऐसे,

ज़िंदगी जैसे फिर नज़र आई ।


वज़्द में दिल नहीं रहा अपना

उनके आने की जब ख़बर आई।


दर्द अपना कि था ज़माने का

आँख दोनों में मेरी भर आई ।


बात फिर ख़त्म हो गई ’आनन’

बुतपरस्ती पे जब उतर आई ।


-आनन्द पाठक -

ग़ज़ल 417

   ग़ज़ल 417 [21 अ] 

1222---1222---1222---1222


तुम्हें लगता है जैसे यह तुम्हारी ही बड़ाई है

खरीदी भीड़ की ताली, खरीदी यह बधाई  है ।


जहाँ कुछ लोग बिक जाते, खनकते चन्द सिक्कों पर

वहाँ सच कटघरे में हैं, जहाँ झूठी गवाही है ।


हमें मालूम है कल क्या अदालत फ़ैसला देगा ,

मिलेगी क़ैद फूलों को, कि पत्थर की  रिहाई है ।


खड़ा है दस्तबस्ता, सरनिगूँ दरबार में जो शख़्स

वही देता सदा रहता, बग़ावत की दुहाई है ।


रँगा चेहरा है खुद उसका, मुखौटे पर मुखौटा है,

कमाल-ए-ख़ास यह भी है कि उस पर भी रँगाई है।


भरोसा क्यों नहीं उसको , ज़माने पर , न ख़ुद पर ही

न लोगों से ही  वह मिलता , न ख़ुद से आशनाई है ।



फिसलना तो बहुत आसान होता है यहाँ ’आनन’

बहुत मुशकिल हुआ करती ये शुहरत की चढ़ाई है।


-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 416

  ग़ज़ल 416 [ 32 अ ] 

1222---1222---1222---1222


रखें इलजाम हम किस पर, वतन की इस तबाही का ।

सभी तो तर्क देते है, यहाँ  अपनी सफ़ाई  का  । 


लगा है हाथ जिसके खूँ, छुपा कर है रखा ख़ंज़र

किया दावा हमेशा ही वो अपनी बेगुनाही का । 


मिला कर हाथ दुश्मन से, वो ग़ैरों से रहा मिलता

सरे महफ़िल किया चर्चा ,वो मेरी बेवफ़ाई का । 


क़दम दो-चार- दस भी रख सका ना घर से जो  बाहर

वही समझा गया क़ाबिल हमारी रहनुमाई का । 


पला करता है गमलों में , घरौदों के जो साए में 

उसे लगता हमेशा क्यों, वो मालिक है  ख़ुदाई का। 


बदल देता हो जो अपनी गवाही चन्द सिक्कों पर

भला कोई करे कैसे यकीं उसकी गवाही का । 


ज़माने की मसाइल पर नहीं वह बोलता ’आनन’

लगा अपना सुनाने ही वो किस्सा ख़ुदसिताई का । 


-आनन्द पाठक- 

ग़ज़ल 415

  ग़ज़ल 415 [63 A]

1222---1222---1222---1222


हमेशा क्यों किया करते हो बस तलवार की बातें

कभी तो कर लिया करते दिल-ए-दिलदार की बातें ।


जो सरहद की लकीरें हैं न दिल पर खीचिएँ उनको 

सभी मिट जाएँगी करते रहें कुछ प्यार की बातें ।


उठा कर देखिए तारीख़ पिछले  इन्क़लाबों की ,

सड़क पर आ गई जनता, हवा दरबार की बातें ।


लगा कर आग नफ़रत की जला दोगे अगर गुलशन

करेगा कौन फिर बोलॊ गुल-ओ-गुलजार की बातें ।


अगर करनी बहस है तो करो मुफ़लिस की रोटी पर

न टी0वी0 पर करो बस बैठ कर बेकार की बातें ।


यहीं जीना, यहीं मरना, यहीं रहना है हम सबको ,

करे फिर किसलिए हम सब अबस तकरार की बातें।


बहुत अब हो चुकी ’आनन’ मंदिर और मसज़िद की

सुनो अब तो ग़रीबों की , सुनो लाचार की बातें  ।


-आनन्द.पाठक- 

ग़ज़ल 414

  414 [66 फ़]                               

2122---1212---22-


इश्क़ करना बुरा नहीं होता ,

हर बशर बावफ़ा नहीं होता ।


हुस्न कब आ के दिल चुरा लेगा

दिल को भी ये पता नहीं होता ।


आप के दर तलक कईं राहें

एक ही रास्ता नहीं होता ।


बात मैं क्या सुनूँ तेरी ज़ाहिद ,

दिल ही जब आशना नहीं होता ।


प्यास कोई अगर नहीं होती

आदमी फिर चला नहीं होता ।


दिल अगर खोल कर जो हम रखते

लौट कर वो गया नहीं होता ।


दरहक़ीक़त यह बात है ’आनन’ 

इश्क़ का मरहला नहीं होता ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 413

  ग़ज़ल 412 [64-फ़  ]

2122---1212---22


जिसको चाहा, कहाँ उसे पाया ।

वो गया लौट कर नहीं   आया ॥


ज़िंदगी बोल कर गई जब से ,

फिर ये दुनिया लगी मुझे माया ।


ग़ैब से ही करे इशारे. वो ,

सामने कब भला नज़र आया ।


एक ही है जो मेरा अपना है

और कोई मुझे नहीं  भाया ।


शेख़ साहब न रोकिए मुझको

आज महबूब मेरे घर आया ।


रंज़-ओ-ग़म, चन्द अश्क़ के क़तरे

इश्क़ का बस यही है सरमाया ।


कैसे कह दूँ मैं इश्क़ में ’आनन’

कौन तड़पा है कौन तड़पाया ।


-आनन्द.पाठक-

 




ग़ज़ल 412

  ग़ज़ल 412 [64-फ़  ]

2122---1212---22


जिसको चाहा, कहाँ उसे पाया ।

वो गया लौट कर नहीं   आया ॥


ज़िंदगी बोल कर गई जब से ,

फिर ये दुनिया लगी मुझे माया ।


ग़ैब से ही करे इशारे. वो ,

सामने कब भला नज़र आया ।


एक ही है जो मेरा अपना है

और कोई मुझे नहीं  भाया ।


शेख़ साहब न रोकिए मुझको

आज महबूब मेरे घर आया ।


रंज़-ओ-ग़म, चन्द अश्क़ के क़तरे

इश्क़ का बस यही है सरमाया ।


कैसे कह दूँ मैं इश्क़ में ’आनन’

कौन तड़पा है कौन तड़पाया ।


-आनन्द.पाठक-

 




ग़ज़ल 411

  ग़ज़ल 411 

2122---1212---22


मेरी यादों में आ रहा कोई

जैसे मुझको बुला रहा कोई।


या ख़ुदा दिल की ख़ैरियत माँगू

रुख़ ए पर्दा उठा रहा कोई ।


वह ज़ुबाँ से तो कुछ नहीं कहता

पर निगाहे झुका रहा कोई ।


सामने देख कर नज़र आता ,

हाल दिल का छुपा रहा कोई ।


गीत वैसे तो गा रहा मेरा ,

दर्द अपना सुना रहा कोई ।


अब तो बातों में रह गई बातें

अब न वादा निभा रहा कोई।


बात कुछ भी तो थी नहीं ’आनन’

ताड़, तिल का बना रहा कोई ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 410

  ग़ज़ल 410 

221---2122---// 221---2122


खुलने दो खिड़कियों को , ताजी हवा तो आए

बहका हुआ है गुलशन, कुछ गीत तो सुनाए ।


माना कि पर कटे हैं , दिल में तो हौसले हैं .

कह दो ये आसमाँ से, मुझको न आजमाए ।


हर शाम राह देखी , रख्खे दिए जला कर ,

अब याद भी नहीं है,  कितने दिए जलाए ।


दीदार का सफ़र तो ,इतना नहीं है आसाँ

दीवानगी ने मुझकॊ, क्या क्या न दिन दिखाए ।


चेहरे तमाम चेहरे , सब एक-सा दिखे  है ।

किसको सही कहे दिल. किसको ग़लत बताए।


महफ़िल सज़ा करेगी , कुछ लोग जब न होंगे ,

उनको भी याद करना , जो लौट कर न आए ।


शायद समझ वो जाए, तारीफ़-ए-इश्क़ क्या है,

जब प्यार में हम ’आनन’, ख़ुद को मिटा के आए ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 409

  ग़ज़ल 409 

21-121-121-122//21-121-121-121-122


लोग चले है प्यास बुझाने, बिन पानी तालाब जिधर है ,

ढूँढ रहे हैं साया मानो , जिस जानिब ना एक शजर है।


दीप जलाने वाले कम हैं , शोर मचाने वाले सरकश,

रहबर ही रहजन बन बैठा, सहमी सहमी आज डगर है।


आदर्शों की बाद मुसाफिर रख लें सब अपनी झोली में

कौन सुनेगा बात तुम्हारी, सोया जब हर एक बशर है ।


कितने दिन तक रह पाओगे. शीशे की दीवारों में तुम

आज नहीं तो कल तोड़ेंगे, सबके हाथों में पत्थर है ।


दरवाजे सब बंद किए हैं, बैठे हैं कमरे के भीतर

क्या खोले हम खिड़की, साहिब !बाहर ख़ौफ़ भरा मंज़र है ।


सीने में बारूद भरा है, हाथों में माचिस की डिब्बी

निकलूँ भी तो कैसे निकलूँ, सबके हाथों में ख़ंज़र है ।


सूरज की किरणों को ’आनन’ लाने को जो लोग गए थे,

अँधियारे लेकर लौटे हैं, घोटालों में क़ैद सहर है ।


-आनन्द.पाठक-